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(८०) नादि बहुधापकार है.
इसके बाद आपने कहाथाकि पितृओंको श्राद्धम मारे हुए जीवके मास भक्षणसे प्रसन्नता होती है येहवातभी प्रत्यक्ष है क्योंकि सन्तुष्ट हुए एवं अपने सन्तानकी द्धि करते है मिय जैमिनीयो । यहभी आपका गलत खयाल है क्योंकि अगर यह सत्य बात होती तो कई विचारे श्राद्ध कराते अपनी उमर इसकाममे ग्क्तम करदेते है मगर बिना सतानके मुह देसेहि मरजाते है और वगेर श्राद्ध क्रियेहि सूअर अकड वगैरेके यहोत रचे देखनेगे जाते है इससे आपका यह कथनभी सर्वथा स्था है मिय मित्रो ! हमेशह याद रखनाकि हिंसा कभीभी धर्म हेतु नहीं होसक्ती! वल्के पाप हतु है इसघातको खयालमें उतारसर याप्रधान जैनमार्गका आश्रयलो । और इस जहालतका नाशरो! क्या ? अपिया अधकारमे पड़े ठोकर साते हो ? इसदुनिया के तमाम मतोंमें दयाका ऐसा स्वरूप नही है जैसाकि जैन मतम पाया जाता है मसलन एकेन्द्रिया दिक र सम्यारादिक अथवा मूक्ष्म बादरादिफ जीवोंका स्वरूप जैसा जमतमें बयान है आ जगत किसी मतमें नदेखा! प्रिय मित्रो ! इससेहि आपविचार सक्ते होकि इसमतमे दयाको प्रधानपर दिया गया है अन्यथा इसकदर भिन्न भिन्न जीवके प्रकार फयन करने की क्या जरूरतधी १ वस यही जरूरतथी