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________________ भाव । गण्णगदो पर मे न झुका हुआ । दुक्खक्खयकारण = दुख के माश का कारण । समये प्रागम मे । 98 पावसहावा [(आद) - (सहाव) 5/1] अण्णं (अण्ण) 1/1 सवि सच्चित्ताचित्तमिस्सिय [(सच्चित्त) + (अचित्त) - (मिस्सिय) 1/1 वि] हवइ (हव) व 3/1 अक त (त) 1|1 सवि परदवं [(पर) वि- (दब्व) 1/1] भणिय (भण) भूकृ 1/1 प्रवितत्य (क्रिविन) = सच्चाई-पूर्वक सव्वदरसोहिं (सन्वदरसि) 3/2 वि। 98 पावसहावा = आत्म-स्वभाव से । अण्ण = अन्य । सच्चित्ताचित्तमिस्सियं = सचित्त - प्रचित्त - मिश्रित । हवइ = होता है । त= वह । परदम्बं% पर द्रव्य । भरिणय = कहा गया। प्रवितत्यं = सच्चाई-पूर्वक । सव्वदरसोहि = सर्वज्ञो द्वारा। 99 जस्स (ज) 6/1 स हिदयेणुमत्त [(हिदये) + (अणुमत्त)] हिदये (हिंदय) 7/1 अणुमत्त (अणुमत्त) 1/1 परदवम्हि (परदन्व) 7/1 बिजदे (विज्ज) व 3/1 अक रागो (राग)1/1 सो (त)1/1 सवि ण (अ) = नही विजापदि (विजाण) व 3/1 सक समय (समय) 2/1 सगस्स (सग) 6/1 सव्वागमधरोवि [(सन्व)+ (मागम)+ (घरो)+ (वि)] [(सन्व) वि - (प्रागम) - (घर) 1/1 वि] वि (प्र) = भी। 1 अणुमत्त = णुमत्त । यहा स्वर का लोप है (अभिनव प्राकृत व्याकरण, पृष्ठ 123)। 99 जस्स = जिसके । हिदयेणुमत्त = हृदय मे अणु के बराबर । परदब्बम्हि = पर द्रव्य मे । विज्जवे = विद्यमान है । रागो = राग । सो = वह । न% नही । विजाणवि = समझता है । समयं = आचरण को। सगस्स-मात्मा के । सव्वागमघरोवि = समस्त प्रागमो का धारण करनेवाला । 100 जो (ज)1/1 सवि सव्वसगमुक्को[(सव्व) वि-(सग) - (मुक्क) भूक1/1 अनि] णण्णमणो= अणण्णमणो (अणण्णमण) 1/1 वि अप्पण (मप्पण) 2/1 सहावेण (सहाव) 3/1 जाणदि (जाण) व 3/1 सक पस्सदि (पस्स) व 3/1 सक णियव (क्रिविन) = निश्चयात्मक रूप से सो (त) 1/1 सवि सगचरिय [(सग) - (चरिय) 2/1] घरवि (चर) 4 3/1 सक जीवो (जीव) 1/11 1 यहा स्वर का लोप है (अभिनव प्राकृत व्याकरण, पृष्ठ, 123) । 82 प्राचार्य कुन्दकुन्द
SR No.010720
Book TitleAacharya Kundakunda Dravyavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1989
Total Pages123
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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