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धर्म-अधर्म-जीव तथा पुद्गल की तरह धर्म-प्रथमं भी दो स्वतन्त्र द्रव्य हैं । यहा धर्म का अर्थ पुण्य और अधर्म का अर्थ पाप नही । प्राचार्य सुन्दान्द मे इनका एक विशेष अर्थ है । यह बात ध्यान देने योग्य है कि द द्रव्यो में में केवल दो ही द्रव्य जीव व पुद्गल मत्रिय है (13) । मेप मव द्रव्य निश्यि है। एक प्रदेश मे दूसरे प्रदेश में गमन को क्रिया कहते हैं । इस प्रिया में जो महारक हो वह धर्म द्रव्य है (10,11) । धर्म द्रव्य उमी प्रसार किया में गहायक होता है जिम प्रकार मधलियो को चलने के लिए जल (128) । जमे हवा दूमर्ग वन्नुप्रां मे गमन क्रिया को उत्पन्न कर देती है बम धर्म द्रव्य गमन पिया उत्पन्न नही करता, वह तो गमन क्रिया का उदासीन कारण है न कि प्रेग्क कारण । धर्म द्रव्य जो स्वय नहीं चल रहे हैं उन्हें बलपूर्वक कभी नही चलाता है । यह बात म्मरण रखने योग्य है कि धर्म द्रव्य स्प, रम, गध, शब्द और स्पर्श ने रहित है । गणं लोकाकाश में व्याप्त है और अखण्ड है (127) । प्रत धर्म द्रव्य स्वय गमन नहीं करता और न अन्य द्रव्यो को गमन कराता है किन्तु जीव और पुद्गल के गमन का उदासीन कारण है। (130,132) ।
अधर्म द्रव्य जीव और पुद्गलो की स्थिति मे उनी प्रकार महायक होता है जिम प्रकार चलते हुए पथिको के ठहरने में पृथ्वी (129) । यह चलते हुए जीव
और पुद्गलो को ठहरने को प्रेरित नही करती है किन्तु स्वय ठहरे हुनो को ठहरने में उदासीन रूप से कारण होती है (129) । यह भी मम्पूर्ण लोकाकाग मे व्याप्त है, अखण्ड है और स्प, रम आदि से रहित है।
आकाश-जो जीव, पुद्गल, धर्म, अवर्म और काल को स्थान देता है वह आकाश है (133)। यह आकाश एक है, सर्वव्यापक है, अबण्ड है और रूप-रसादि गुणो से रहित है । यहा यह वात ध्यान देने योग्य है कि जैसे धर्मादि द्रव्यो का आधार आकाश है उस तरह आकाश का अन्य कोई और आवार नहीं है क्योकि आकाश का अन्य आधार मानने से उसका भी कोई आधार मानना पडेगा और फिर उसका भी, इस तरह अनवस्था दोप आ जायेगा । अत उमे स्वय ही अपना आधार मानना युक्तिसगत है। आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार आकाश दो भागो मे कल्पित किया गया है, लोकाकाश और अलोकाकाश । जीव, पुद्गल, धर्म-अधर्म और काल जहा ये पात्रो द्रव्य रहते हैं वह लोकाकाश है और इससे परे अलोकाकाश (134) ।
काल-जो जीवादि द्रव्यो के परिणमन मे महायक है वह काल है (135) । जैसा कि ऊपर कहा गया है कि प्रत्येक द्रव्य परिणामी-नित्य है। म