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प्रबन्ध सम्पादक की ओर से
सामान्यतः प्राज का युग व्यक्ति-पूजा का नहीं रहा है, पर प्रादों की पूजा के लिए भी हमें व्यक्ति को ही खोजना पड़ता है। अहिंसा, मत्य व संयम की अर्चा के लिए अणुव्रत-यान्दोलन-प्रवर्तक प्राचार्यश्री तुलसी यथार्थ प्रतीक हैं । वे अणुव्रतों की शिक्षा देते हैं और महाव्रतों पर स्वयं चलते हैं।
__ भारतीय जन-मानस का यह सहज स्वभाव रहा है कि वह तर्क से भी अधिक श्रद्धाको स्थान देता है । वह श्रद्धा होती है-त्याग और मंयम के प्रति । लोक-मानस साधुजनों की बात को, चाहे वे किसी भी धर्म के हों, जितनी श्रद्धा मे ग्रहण करता है, उतनी अन्य की नहीं। अणुव्रत-पान्दोलन की यह विशेषता है कि वह साधुजनो द्वारा प्रेरित है। यही कारण है कि वह प्रासानी से जन-जन के मानस को छू रहा है । प्राचार्यश्री तुलसी ममग्र आन्दोलन के प्रेरणा-स्रोत हैं।
आचार्यश्री का व्यक्तित्व सर्वांगीण है। वे स्वयं परिपूर्ण हैं और उनका दक्ष शिप्य-समुदाय उनकी परिपूर्णता में और चार चाँद लगा देता है। योग्य शिष्य गम की अपनी महान् उपलब्धि होते है। प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थ व्यक्ति-अर्चा में भी बढ़ कर समुदाय-अर्चा का द्योतक है। अण्वन-पान्दोलन के माध्यम से जो मेवा प्राचार्यजी व मुनिजनों द्वारा देश को मिल रही है, वह अाज ही नहीं; युग-युग तक अभिनन्दनीय रहेगी।
'प्राचार्यश्री तुलसी अभिनन्दन ग्रन्थ' केवल प्रगस्ति ग्रन्थ ही नहीं, वास्तव में वह ज्ञान-वृद्धि और जीवन-शुद्धि का एक महान शास्त्र जमा है। इसमे कथावस्तु के रुप में प्राचार्यश्री तुलसी का जीवनवृत्त है । महाव्रतों को माधना और मुनि जीवन की पागधना का वह एक सजीव चित्र है। राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काग्य है, कोई कवि बन जाय सहज सम्भाग्य है की उक्ति को चरितार्थ करने वाला वह अपने आप में है ही। साहित्य मर्मज्ञ मुनिश्री बुद्ध मल्ल जी की लेखनी में लिखा जाकर वह इतिहास पीर काव्य की युगपत् अनुभूति देने वाला बन गया है। नैतिक प्रेरणा पाने के लिए व नैतिवना के स्वरूप को सर्वागीण रूप से समझने के लिए 'प्रणवत अध्याय' एक स्वतन्त्र पुस्तक जैसा है । दर्शन व परम्परा अध्याय में भारतीय दर्शन के अंचल में जैन-दर्शन के तात्त्विक और सात्त्विक स्वरूप को भली-भांति देवा जा सकता है। 'श्रद्धा, संस्मरण व कृतित्व' अध्याय में प्राचार्यश्री तुलमी के सार्वजनीन व्यक्तित्व का व उनके कृतित्व का समग्र दर्शन होता है । साधारणतया हरेक व्यक्ति का अपना एक क्षेत्र होता है और उसे उस क्षेत्र में श्रद्धा के मुमन मिलते हैं। नैतिकता के उन्नायक होने के कारण प्राचार्यजी का व्यक्तित्व सर्वक्षेत्रीय बन गया है और वह इस अध्याय मे निर्विवाद अभिव्यक्त होता है।।
केवल छः मास की अवधि में यह ग्रन्थ मंकलित, सम्पादित और प्रकाशित हो जाएगा, यह पाशा नहीं थी। किन्तु इस कार्य की पवित्रता और मंगलमयता ने असम्भव को सम्भव बना डाला है। ऐसे ग्रन्थ अनेकानेक लोगों के सक्रिय योग मे ही सम्पन्न हुआ करते हैं। मैं उन समस्न लेखकों के प्रति आभार प्रदर्शन करता हूँ, जिन्होंने हमारे अनुरोध पर यथासमय लेग्व लिग्य कर दिये। राष्ट्रपति डा. राजेन्द्रप्रसाद, प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू, उपराष्ट्रपति डा० एस० राधाकृष्णन्, मर्वोदयो संत विनोबा व राजर्षि पुरुषोत्तमदाम टण्डन आदि ने अपनी व्यस्तता में भी यथासमय अपने सन्देश भेज कर हमें बहुत ही अनुगृहील किया है। तुलसी अभिनन्दन ग्रन्थ के व्यवस्थापक श्री मोहनलालजी कटौतिया का व्यवस्था-कौशल भी अभिनन्दन ग्रन्थ की सम्पन्नता का अभिन्न अंग है। दिल्ली प्रणवत समिति के उपमन्त्री श्री सोहनलालजी बाफणा और श्री लादूलालजी पाच्छा. एम. कॉम० मेरे परम सहयोगी रहे हैं। इनकी कार्यनिष्ठा ग्रन्थसम्पन्नता की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। श्री मुन्दरलाल झवेरी, बी० एस-सी० ने प्राचार्यश्री तुलसी के सम्पर्क में आये हा