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प्राचार्यश्री तुलसी अभिनम्न प्ररथ
[प्रथम
मास्थाका मालोक
प्राचार्यश्री में चिन्तन है, विचारों के अभिनव उन्मेष हैं। इसलिए वे रूत मार्ग पर ही नहीं चलते, उपयोगितानुमार नये मार्ग का भी पालम्बन लेते हैं, नई रेखाएं भी खींचते हैं। यह सम्भवतः असम्भव ही है कि कोई व्यक्ति नई रेखा खींचे और संघर्ष का वातावरण न बने । मंघर्ष को निमन्त्रण देना बुद्धिमानी नहीं है, तो प्रगति के परिणामस्वरूप जो माये उसे नहीं झेलना भी बुद्धिहीनता है। संघर्ष बुरा क्या है ? वह सफलता की पहली तेज किरण है। उसमे जो चौंधिया जाता है, वह अटक जाता है और उसे जो सह लेता है, वह सफलता का वरण कर लेता है । असफलता और सफलता की भाषा में स्वामी विदेकानन्द ने जो कहा है वह चिर सत्य है-"संघर्ष और बटियों की परवाह मत करो। मैंने किसी गाय को मंठ बोलते नहीं सुना; पर वह केवल गाय है, मनुष्य कभी नहीं। इसलिए असफलतामों पर ध्यान मत दो, ये छोटीछोटी फिमलने हैं। प्रादर्श को सामने रख कर हजार यार आगे बढ़ने का प्रयत्न करो। यदि तुम हजार बार ही असफल होते हो तो एक बार फिर प्रयत्न करो।" प्राचार्यश्री को अपनी गति में अनेकानेक अवरोधों का सामना करना पड़ा, पर वे थके नहीं। विराम लिया, पर रुके नहीं। उम अबाध गति के संकल्प और प्रगाध मास्था ने उनका पथ प्रशस्त कर दिया। प्रास्था-हीन व्यक्ति हजार बार सफल होकर भी परिणाम काल में असफल होता है और प्रास्थावान् पुरुष हजार अमफलसानों को चीर कर अन्त में सफल हो जाता है। प्राचार्यश्री ने अपनी प्रास्था के प्रालोक में अपने-अापको देखते हा लिखा है:
“यह तीन चार वर्ष का संक्रान्ति-काल रहा। इसमें जो घटना-चक्र चला, उसका हरेक प्रादमी के दिमाग पर अमर हा बिना नहीं रहता। इस समय मेरा साथी मेरा प्रात्म-बल था और साथ ही मैं अपने भाग्य विधाता गरुदेव को एक घड़ी के लिए भी भला हूँ, ऐसा नहीं जान पड़ता। उनकी स्मृति मात्र से मेरा बल हर वक्त बढ़ता रहा। मेरी प्रामा हर वक्त यह कहती रही कि तेरा रास्ता सही है और यही सन्य-निष्ठा म मागे बनाए चल रही है।
"विरोध भीषण था, पर मेरे लिए बलवर्धक बना। नंघर्ष म्वतरनाक था, पर मेरे और संघ के प्रान्मालोचन के लिए बना। इसमे सतर्कता बढ़ी। साधु-मंच में प्राचीन ग्रन्थों व मितान्तों के अध्ययन की अभिरुचि वढी। सजगता बढी। पचामों वर्षों के लिए गस्ता मरल हो गया। इत्यादि कारणों से मैं इसे एक प्रकार की गुणकारक वस्तु समझता हैं। फिर भी मंधर्व कभी न हो, शान्त वातावरण रहे, मंगठन अधिक दन रहे, हर वक्त यही काम्य है। भिक्ष शामन विजयी है, विजयी रहे। माधु-मंध कुशल प्राचारवान् है, वैसा ही रहे।'' अपराजेय मनोवृत्ति
विजय की भावना व्यक्ति के प्रान्म बल मे उदभूत होती है। प्रारमा प्रबल होती है, तब परिस्थिति पराजित हो जाती है। प्रात्मा दुर्बल होता है, परिस्थिति प्रबल हो जाती है। साधना का प्राशय यही है कि प्रात्मा प्रबल रहे, परिस्थिति से पराजित न हो। इस अपराजेय मनोवृनि का ग्रंकन इस प्रकार हुअा है-"स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं रहता। मौन ब विश्राम से काम चल जाता है । वर्ष भर तक दवा लेने का प्रत्यायान है । प्रात्म-बल प्रबल है, फिर क्या ?"
प्रात्मा में अनन्त वीर्य है उसका उदय अभिसन्धि मे होता है। अभिसन्धिहीन प्रवृत्ति से वीर्य की स्फुरणा नहीं होती। जो कार्य वीर्य-अभिसन्धि के बिना किया जाता है, वह मफल नहीं होता और वही कार्य अभिसन्धि द्वारा विया जाता है, तो महज सफल हो जाता है। प्राचार्यश्री का अपना अनुभव है-"परिश्रम की अधिकता के कारण सिर में भार. प्रॉम्बों में गर्मी प्राज काफी बढ़ गई । रात्रि के विश्राम में भी पाराम नहीं मिला, तब सबेरे डेढ घण्टे का मौन किया और नाक मे लम्बे स्वाम लिये । इससे बहुत प्राराम मिला । पुनः शक्ति-संचय-सा होने लगा। चित्त प्रसन्न हया । मेरा विश्वास
१ वि० सं० २००१ फाल्गुन कृष्णा २, सरदारशहर २ वि० सं० २०१२ भाद्र शुक्ला २, उज्जैन