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सम्पादकीय
आचार्यश्री तुलसी अभिनन्दन ग्रन्थ में चार अध्याय हैं। प्रथम अध्याय श्रद्धाञ्जलि और संस्मरण प्रधान है। देश और विदेश के विभिन्न क्षेत्रीय लोगों ने प्राचार्य श्री तुलसी को अपनी-अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पित की है। वे प्राचार्यश्री के व्यापक व्यक्तित्व और लोक सेवा को परिचायक हैं । दूसरे अध्याय में प्राचार्यश्री तुलसी की जीवन-गाथा है। जिनका ममग्र जीवन ही अहिंसा और अपरिग्रह की पराकाष्ठा पर है, उनकी जीवन-गाथा सर्वसाधारण के लिए उदबोधक होनी ही है। तीसरे अध्याय की आत्मा अणुव्रत है। ममाज में अनैनिकना क्यों पैदा होती है और उसका निराकरण क्या है आदि विषयों पर विभिन्न पहलुगों मे लिखे गए नाना चिन्तनपूर्ण लेख इस अध्याय में हैं। समाज-शास्त्र, मनोविज्ञान और अर्थशास्त्र के आधार पर विभिन्न विचारकों द्वाग प्रस्तुत विषय पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डाला गया है। संक्षेप में इस अध्याय को हम एक सर्वांगीण नैतिक दर्शन कह सकते हैं। चौथा अध्याय दर्शन और परम्पग का है। विद्वानों द्वारा अपनेअपने विषय गे सम्बन्धित लिखे गए शोधपूर्ण लेख इम अध्याय को ही नहीं, ममग्र ग्रन्थ की अनूठी सामग्री बन गए हैं। हालांकि अधिकांश लेख जैन दर्शन और जन-परम्परागे ही सम्बन्धित है। फिर भी वे नितान्त शोध-प्रधान दष्टि से लिखे गए है और साम्प्रदायिकता से सर्वथा अछते रहे हैं । स्याहाद जैन दर्शन का तो हृदय है ही, साथ-साथ वह जीवन-व्यवहार का अभिन्न पहलू भी है। यह मिद्धान्त जितना दार्शनिक है, उतना वैज्ञानिक भी। डा० पाइन्स्टीन ने भी अपने वैज्ञानिक गिद्धान्त को मापेक्षवाद की संज्ञा दी है। इस प्रकार चार अध्यायों का यह अभिनन्दन ग्रन्थ दर्शन और जीवन व्यवहार का एक मर्वागीण शास्त्र बन जाता है। अभिनन्दन-परम्पग की उपयोगिता भी यही है कि उस प्रमंग विशेष पर ऐसे ग्रन्थों का निर्माण हो जाता है। अभिनन्दन में व्यक्ति तो केवल प्रतीक होता है। वस्तुत: तो वह अभिनन्दन उसकी मत्प्रवृत्तियों का ही होता है।
भारतवर्ष में सदा ही त्याग और संयम का अभिनन्दन होता रहा है। प्राचार्यश्री तुलसी स्वयं अहिंसा व अपरिग्रह की भूमि पर है और समाज को भी दे इन प्रादों की ओर मोड़ना चाहते हैं । सामान्यतया लोग सत्ता की पूजा किया करते हैं। इस प्रकार मेवा के क्षेत्र में चलने वाले लोगों का अभिनन्दन समाज करती रही, तो सत्ता और अर्थ जीवन पर हावी नहीं होंगे।
ग्रन्थ-सम्पादन की शालीनता का सारा श्रेय मुनिश्री नगराजजी को है । साहित्य और दर्शन उनका विषय है। मैं सम्पादक मण्डल में अपना नाम हमीलिए दे पाया कि वह कार्य उनकी देख-रेग्य में होना है। व्यक्तिश: मैंने इस पुनीत कार्य में अधिक हाथ नहीं बढ़ाया, पर नाम से भी मबके साथ रह कर आचार्यश्री तुलमी के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त कर सका, इस बात का मुझे हर्ष है।
पटना ता० २६-१२-६१