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भाचार्यश्री तुलसी अभिनन्दन प्रम्प
[ प्रथम
अपनी पृष्ठभूमि
इस विषय में अधिक लिखने से पूर्व मैं इस संसार और मनुष्य-जीवन के बारे में अपना दृष्टि-बिन्दु भी उपस्थित करना चाहँगा। मेरे पूर्वजों की पृष्ठभूमि उन विद्वान् ब्राह्मणों की है जो अपनी आँख खुली रख कर जीवन बिताते थे और उनके मन में निरन्तर यह जिज्ञासा रहती थी-तत् किम् ? मेरी तात्कालिक पृष्ठभूमि ब्रह्म समाज की थी। यह हिन्दुओं का एक सम्प्रदाय है जो उपनिषदों की ज्ञानमार्गी व्याख्या पर आधारित है। मुझे विज्ञान की शिक्षा मिली है और मैंने लन्दन में डिग्री और डिप्लोमा प्राप्त किया है। बाद में मेरे पूज्य पिताजी ने मुझे पत्रकारिता की शिक्षा दी, जो अपने समय में इस देश के एक महान् और उदार सम्पादक थे। मैंने विस्तृत भ्रमण किया और तीन महाद्वीपों का जीवन भी देखा है। मेरे पिताजी को सार्वजनिक जीवन में जो स्थान प्राप्त था, उसके कारण मैं देश के प्रायः सभी महापुरुषों और कुछ विशिष्ट विदेशी व्यक्तियों से भी मिल चुका हूँ।
इस प्रकार मुझे यह गौरव है कि मेरी पृष्ठभूमि एक सधे हुए निरीक्षक की थी, जो जीवन को एक यथार्थवादी दृष्टि से देख सकता है। पूज्य प्राचार्यश्री तुलसी से भट के समय मेरी अवस्था ५० वर्ष की थी और जीवन के सम्बन्ध में मुझे कोई विशेष भ्रम नहीं थे। मैंने सन् १९१४-१८ को अवधि में प्रथम महायुद्ध को निकट से देखा था और इसलिए मानव-स्वभाव और मानव-दुर्बलताओं एवं विकारों के सम्बन्ध में काफी शंकाशील बन गया था। मैं यह सब इसलिए लिम्ब रहा हूँ कि दीक्षार्थियों के सम्बन्ध में मेरी जिज्ञासा का हल धार्मिक उत्साह से उत्पन्न नहीं हुआ था, बल्कि बात इसके बिल्कुल विपरीत थी।
वह ऐसी कौन-सी शक्ति थी, जिसने इन दीक्षार्थियों को कठोर संयम और सम्पूर्ण त्याग का जीवन अपनाने को प्ररित किया? मैंने एक दिन पूर्व उनमें से कुछ को भड़कीली वेश-भूषा में जीवन का उपभोग करते हा देखा था। दीक्षा-समारोह में मैं इतना निकट बैठा हुआ था कि दीक्षार्थियों को साफ-साफ देख सकता था। उनमे दो या तीन लडके और एक लड़की थी और वे यौवन की देहली में पांव रखने जा रहे थे । एक दिन पहले मैंने जो कुछ देखा, उसके बाद यह तो प्रश्न ही नहीं उठना कि उन्होंने अभाव मे प्रेरित होकर यह निर्णय किया होगा। अवश्य ही धार्मिक वातावरण के प्रभाव से इन्कार नहीं किया जा सकता, किन्तु प्रत्येक उदाहरण में क्या यही एकमात्र प्रेरक कारण हो सकता है ? यदि इस धर्म को मानने वाले मेरी जान-पहिचान के कुछ लोगों की व्यावमायिक नैतिकता और सामान्य जीवन-पद्धति पर विचार किया जाये तो यही कहना होगा कि यही एक मात्र कारण नहीं है । मुझे यह खेदपूर्वक लिखना पड़ रहा है, किन्तु उम ममय मेरा यही तर्क था और स्वयं पूज्य आचार्यश्री ने अपने अनुयायियों के बारे में, अणुव्रत-आन्दोलन के सिलसिले में, अपनी पद-यात्रा के दौरान में कलकत्ता में जो कुछ कहा था, उसके आधार पर यह लिखने का साहस कर रहा हूँ।
अपने प्रश्न का जो उत्तर मिला, उसे मैं सीधे और स्पष्ट रूप में यहाँ लिख दूं। इस पार्थिव संसार में, माधारण मनुष्यों के लिए मानव प्राणियों पर दैवी प्रभाव किम प्रकार काम करता है, यह मालूम करना आसान नहीं होता। जहाँ तक सामान्य जन का सम्बन्ध है, तीव्रता और प्रकाश का प्रसार प्रात्मा के प्रान्तरिक विकास पर निर्भर करता है जो मशालवाहक का काम करता है। मशाल की ज्योति मशालवाहक की आन्तरिक शक्ति के परिमाण पर मन्द या तीव्र होती है। जरूरतमन्दों और पीड़ितों में श्री रामकृष्ण के उपदेशों का प्रचार करने के लिए असीसी के मंत फासिम जैमी ममपित प्रात्मा की आवश्यकता थी। इमी प्रकार प्राचार्यश्री भिक्षु ने तेरापंथ की स्थापना की। इसलिए मुझे अपने प्रश्न का उत्तर प्राचार्यश्री तुलमी के व्यक्तित्व में खोजना पड़ा।
दीक्षा-समारोह के पहले मैं उनसे मिल चुका था। उन्होंने मुना था कि बंगाल के एक पत्रकार आये हैं। उन्होंने दीक्षाथियों के चुनाव की विधि और दीक्षा के पहले की मारी क्रियाग मुझे समझाने की इच्छा प्रकट की। इसका यह कारण था कि उनके साधु समाज के उद्देश्यों और प्रवृत्तियों के बारे में कुछ अपवाद फैलाया गया था। उन्ह यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि मैं हिन्दी अच्छी तरह बोल और समझ सकता हूँ और उन्होने सारी विधि मुझे विस्तार से समझा दी। भक्त लोग दर्शन करने और पूज्य प्राचार्यश्री के आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए आते रहे और