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२०२] भाचार्यश्री तुलसी अभिनन्दन प्रन्य
[ प्रथम मिलती है। इससे रसोत्पत्ति में कोई बाधा नहीं पहुँचती है और यह संतों की वाणी की विशेषता भी है। प्राचार्य तुलसी संत-परम्परा में होने के कारण भाषा के अलावा भावाभिव्यंजना में भी तुलसी, सूर. कबीर और मीरा के निकट हैं, जिन्होंने अपने आराध्य के गीत गाये हैं। आचार्यश्री तुलमी जैन-परम्परा में दीक्षित होने के कारण अपने प्राराध्य परिहन्त प्रभ का यश-गान करते हैं। वे कहते हैं :
प्रभुम्हारे मन-मन्दिर में पधारो, करूं स्वागत-गान गुणां रो।
करूं पल-पल पूजन प्यारो॥ चिन्मय ने पाषाण बणाऊँ ? नहिं मैं जा पूजारो। भगर, तगर, चम्बन पy परचूं ? कण-कण सुरभित थारो॥ नहि फल, कुसम की भेंट चढ़ाऊँ, मैं भाव भेंट करणारो। भाप अमल अविकार प्रभुजी, तो स्नान कराऊं क्यारो। महि तत, ताल, कंसाल बजाऊँ, नहिं टोकर टणकारो।
केवल जस झालर ऋणणाऊं धूप ध्यान धरणारो॥ अन्त में जब वे कहते हैं :
अशरण-शरण, पतित-पावन, प्रभु 'तुलसी' पब तो तारो। तब ऐसा प्रतीत होता है जैसे तुलसी ने अपने राम को, भूर ने अपने कृष्ण को, कबीर ने अपने 'साहिब' को और मीरा ने अपने गिरधर-गोपाल को पुकारा है।
जैन-दर्शन के अनुसार प्रात्मा का शुद्ध अथवा अशुद्ध होना उसी के उपक्रमों पर निर्भर है । साधक को यह जानते हुए भी सन्तोष नहीं होता। उसकी अन्तः-शुद्धि के लिए जैन धर्म में चार शरण और पाँच परम इष्ट हैं । शरण की अवस्था में जैन धर्म और बौद्ध धर्म एक दूसरे के निकट पा जाते हैं । बौद्ध धर्म में शरणागत केवल तीन की शरण ग्रहण करता है। वह कहता है
बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्म शरणं गच्छामि,
संघं शरणं गच्छामि। जैन धर्म का साधक अरिहन्तों, सिद्धों, साधुनों और धर्म की शरण ग्रहण करता है। वह परिहन्तों, सिद्धों, प्राचार्य, उपाध्याय एवं समस्त साधुनों को नमस्कार करता है । जैन मत के अरिहन्त और सिद्ध यही दो मुख्य आधार हैं। धर्म और साधु शरण हैं। प्राचार्य, उपाध्याय और मुनि इष्ट हैं। अरिहन्त इसलिए पूज्य है कि वे देह सहित हैं और अपने प्रष्ट कर्म प्रावरणों से चार कर्म भावरणों को दूर कर चुके है, इसीलिए वे जिन हैं। धर्म और तीर्थ के प्रवर्तक अरिहन्त परोपकारी हैं। प्राचार्य तुलसी ने अपनी उपदेश वाटिका का प्रारम्भ अरिहन्त की स्तुति से ही किया है। वे कहते हैं:
परमेष्ठी पंचक ध्याऊँ, में सुमर-समर सुख पाके, निज जीवन सफल बणाऊ।
अरिहन्त सिद्ध अविनाशी, धर्माचारज गुण-राशी, है उपाध्याय अभ्यासी, मुनि-चरण शरण में माऊं।