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भरत-मुक्ति-समीक्षा रणभेरी गूंज उठी नभ में, बोरों के मानस फड़क उठे, बेफड़क उठे हैं लड़ने को, कायर जन के मन बड़क उठे।'
म्यानों से निकली तलवारें, मानो घन में बिजली दमकी, परछियां, कटारें, तेज शूल, बेभालों की प्रणियां चमकौं।'
प्रश्व-सूत समेत स्पन्दन बण्ड से शतखण, मत्त गज-कुम्भस्थलों पर गवा-धात प्रचण्ड थे, पारषी-भय से यषामग-यूथ प्रस्त-व्यस्त हो,
मोट में छुपने लगे सब भयाकुल संत्रस्त हो।' पं० श्यामनारायण पांडे द्वारा रचित 'हल्दीघाटी' काव्य में जो प्रोजपूर्ण वर्णन हमें दृष्टिगोचर होता है, वैमा ही प्रखर प्रवाह हमें यहाँ भी लक्षित होता है । यहाँ हमे रणभेरी की गूंज, वीर-हृदय को कड़क और कायर-जन की धड़क स्पष्ट सुनाई देती है तथा विद्युत्तुल्य तलवारों की दमक और बरदी, कटार एवं भालों की चमक प्रत्यक्ष-सी दिखाई देती है। काव्य को पढ़ते-पढ़ते समरांगण की ठेल-पेल एवं अस्त-व्यस्तता, मार-काट एवं हाहाकार तथा घर्षण-कर्षण सभी कुछ चलचित्र की भांति अनुभूत होता है । इस वर्णन में वीर के अनुकल प्रोजगुण से व्यंजक वर्णों की योजना दर्शनीय है। यह कुशल कलाकार की सफल एवं सबल लेखनी का ही परिचायक है। '' युद्ध का चित्रण करते हुए बीभत्स रस का अंकन भी प्रसंगवश पा ही गया है, यथा
प्रर्ष क्षत-विक्षत सभी शव दूर फेके जा रहे, मांस-लोलुप श्वान, जम्बुक, गीष उनको खा रहे।'
जिस हदय स्थल में कितनों का स्नेह भाव था रहता। माज खा रहे कोए, कुत्ते, रह-रह शोणित बहता।। जिन प्रांतों में तेज तरुण था, पण प्रोज की रेखा। चों मार रही हैं चीले दारुण वह वृश्य न जाता देखा। हष्ट-पुष्ट सुम्बर बपु जिस पर ये मन स्वतः लभाते।
काट-काट पने दांतों से उसको जम्बुक खाते॥ इस चित्रण में भी प्रोज अपनी पराकाष्ठा पर है। इसके अतिरिक्त रोड का ग्राभास हमे भरत-दूत एवं बाहुबली के वार्तालाप मादि में उपलब्ध होता है। भयानक का चित्रण भी अल्प मात्रा में हुआ है यथा बाहुवली के वन में जाते
१ भरत-मुक्ति, पृष्ठ ८४ २ वही, पृष्ठ ६३ ३वही, पृष्ठ ११ ४ वही, पृष्ठ १०० ५ वही, पृष्ठ १००-१०१