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मरत-मुक्ति-समीक्षा
डा० विमलकुमार जैन, एम० ए०, पी-एच० डी० प्राध्यापक, दिल्ली कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
महामान्य प्राचार्यप्रवर तुलसीजी कृत 'भरत- मुक्ति' एक महाकाव्य है, जिसमें धादीश्वर भगवान् ऋषभदेव की दीक्षा, तपस्या एवं केवलज्ञान की प्राप्ति के अनन्तर भरत चक्रवर्ती की दिग्विजय का उत्सव, उनके प्रठ्ठानवें भाइयों का संसार त्याग, तत्पश्चात् बाहुबली से युद्ध और पुनः देवों द्वारा प्रतिबोधित होकर बाहुबली का संन्यास ग्रहण और अन्त में भरत का राज्य-व्यवस्था के उपरान्त इन घटनाओं से विषण्ण होकर प्रव्रज्या ग्रहण करके घोर तपश्चरण के पश्चात् मुक्ति का वरण करना वर्णित है ।
इसमें महाकाव्य के प्रायः सभी नक्षण उपलब्ध हैं। भरत इसके नायक हैं, जो धीरोदात्त एवं इक्ष्वाकु क्षत्रियकुलोत्पन्न हैं । यह काव्य प्रष्टाधिक सर्गों में समाप्त हुआ है तथा भरत के दीर्घकालिक जीवन की अनेक घटनाओं से व्याप्त है। इसमें नायिका का चित्रण नहीं है। केवल एक स्थान पर उनकी मनेक पत्नियाँ होने का उल्लेख है। इसमें धनेक छन्दों प्रयोग हुआ है तथा अंगीरस शान्त के अतिरिक्त वीरादि अंगभूत रसां का भी चित्रण है। इसमें प्रकृति-चित्रण भी है तथा युद्धादि का वर्णन भी है। इसका अन्त इसकी संज्ञानुसार प्रदर्शपूर्ण उद्देश्य से युक्त है।
इस प्रकार लक्षण-निष पर कसा हुआ यह एक बृहत्काय काव्य है, जो घपने सौष्ठव से श्रोत-प्रोत होकर जीवन के बाह्य और ग्रन्तः सौन्दर्य पर प्रकाश डालता हुआ उसके वास्तविक स्वरूप को उद्घाटित करता है ।
इसमें काव्य के दोनों ही पक्ष भाव एवं कला अपने चरमोत्कर्ष पर हैं। भारतीय संस्कृति एवं विचार-परम्परा के अनुसार जीवन का लक्ष्य जगज्जंजाल से मुक्त होना है। संसार में सदसत् सभी प्रकार के कर्म प्राणी को सुख-दुःखात्मक स्थितियों में डालते हुए उसके जन्म-मरण के निमित्त बनते हैं। देही काम, क्रोध, मद, लोभादि के वशीभूत हुआ कर्म करता है । कभी वह पाप करता है तो कभी पुण्य परन्तु ये सभी सन्ताप के कारण होते हैं, क्योंकि क्रियानुसार फल- मुक्ति अनिवार्य है । यथा शूल के बदले फूल नहीं मिलते उसी प्रकार पाप करके शुभ परिणाम की कामना निष्फल है । अतः शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिए कर्म बन्धन से विमुक्ति आवश्यक है और वह साधना एवं तपस्या से ही सम्भव है।"
भगवान् श्रादीश्वर के इस तात्विक चिन्तन पर, जो प्राध्यात्मिक दृष्टि से एक ध्रुव सत्य है, इस काव्य की श्राधारशिला स्थापित है इसीलिए प्रारम्भ से अन्त तक ऋषभदेव, उनके धठ्ठानवें पुत्रों तदनन्तर उनके पुत्र बाहुबली और अन्त में भरत का संसार त्याग वर्णित है, जिसका पर्यवसान निर्वाण में हुआ है, जो मानव-जीवन का चरम लक्ष्य है। सभी महानुभावों की दीक्षा एवं प्रव्रज्या के प्रेरक कारण उपर्युक्त कषाय ही हैं, जो कर्म-प्रवृत्ति का मूल हेतु हैं । भगवान् ऋषभदेव के इन शब्दों में संसार की निस्सारता स्पष्ट ही प्रत्यक्ष हो जाती है
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ग्राकर के कितने गये यह धरती किसके साथ रही,
१ 'सभी भाभियाँ तेरी बंगी भाई ! मुझे उसाने भरत-मुक्ति, पृष्ठ १६१ २ भरत-मुक्ति, पृष्ठ १५