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पाचायची तुलसी अभिनन्दन प्रग्य साहित्य में नहीं है।" बैदिक साहित्य में सीता का उल्लेख केवल 'रामोत्तर तापनीयोपनिषद्' में मिलता है, जो साहित्यशोधकों द्वारा काल-क्रम की दृष्टि से अर्वाचीन ठहराया गया है। डॉ० कामिल बुल्के के मतानुसार "वैदिक सीता का व्यक्तित्व ऐतिहामिक न होकर लांगल पद्धति के मानवीकरण का परिणाम है।" प्रचलित बास्मीकि रामायण में सीता को भूमिजा भी कहा गया है। "एक दिन राजा जनक यज-भूमि को तैयार करने के लिए हल चला रहे थे कि एक छोटी-सी कन्या मिट्टी में निकली। उन्होंने उसे पुत्री-स्वरूप ग्रहण किया तथा उसका नाम मीना रखा । सम्भव है कि भूमिजा सीता की अलौकिक जन्म-कथा सीता नामक कृषि की अधिष्ठात्री देवी के प्रभाव से उत्पन्न हुई हो।" गुणभद्रकृत 'उत्तरपुराण' के अनुमार मीता रावण की पुत्री थी और मन्दोदरी के गर्भ से उसका जन्म हया था। इसी प्रकार पराजा सीता, रक्तजा सीता और अग्निजा सीता की कल्पनाएं भी अनेक पौराणिक कथा-काव्यों में मिलती हैं।
विष्णु के अवतार राम की पत्नी सीता को भी विष्ण की पत्नी लक्ष्मी का अवतार माना गया है। भक्तप्रवर तुलसीदास ने सीता को प्रभु की शक्ति-योग माया के रूप में प्रस्तुत किया है, जो केवल विण की पत्नी का अवतार मात्र नहीं, प्रत्युत स्वयं सृष्टि का सृजन, पालन और संहार करने में समर्थ सर्वशक्तिमती है :
जासु अंश उपजहि गुन खानी। प्रगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी।
भकुटि विलास जास जग होई। राम बाम विसि सीता सोई। 'अग्नि-परीक्षा में प्राचार्यश्री तुलसी ने सीता को महामानव राम की महीयसी महिषी के रूप में चित्रित किया है और यह चरित्र प्राँसुओं से धुल कर और ग्राग मे जल कर तात कुन्दन की नरह सर्वथा निष्कलष हो गया है। पत्नी के रूप में राम की अर्धाङ्गिनी बन कर भी वह प्रभागिनी ही रही :
___ जबसे इस घर में प्राई इसने दुःख ही पःख देखा,
पता नहीं बेचारी के कैसी कर्मों की रेखा ? पृथ्वी की पुत्री को भी अगर अपनी सर्वसहा माता की भांति सबका पदाघात सहन करना पड़ा हो तो इसमे आश्चर्य ही क्या ? 'अग्नि-परीक्षा' में प्राचार्यश्री तुलमी ने उसी प्रथुमती सीता को नायिका के पद पर प्रतिष्ठित किया है जिसकी पलकों में आंसुओं की आद्रता के साथ सतीत्व का ज्वलन्त तेज भी है। उसमें नारीत्व के प्रात्म-गौरव की भावना सदेव प्रगाढ़ रूप में परिलक्षित होती है। वह राम के माध्यम से पुरुष जाति के अत्याचार को सहर्ष सहन करती हुई भी अपने अन्तर में विद्रोहिणी है । वाल्मीकि और तुलमी की सीता उमके सामने नननयना और मूकवचना निरीहा नारी प्रतीत होती है। युग के प्रभाव से आधुनिक युग की प्रबद्ध नारी-चेतना से प्राचार्यश्री तुलसी भी अप्रभावित नहीं रह सके हैं। 'साकेत' की सीता और मिला की आत्यन्तिक कोमलता और कातरता का प्रायश्चित्त श्री मैथिलीशरण गप्त ने भी 'विष्णुप्रिया' में किया है। 'अग्नि-परीक्षा की सीता राम से उपालम्भ के रूप में जो कुछ कहनी है, उसमें युग-युग से पददित और प्रवंचित नारी जाति की वह मर्म-वेदना भी मिली हुई है, जो विद्रोह की सीमा-रेखा को स्पर्श करने लगी है :
हाय राम! क्या नारी का कोई भी मूल्य नहीं है ?
स्या उसका प्रौवार्य, शौर्य पुरुषों के तुल्य नहीं है ? प्राचार्यश्री तुलसी एक धर्म-सम्प्रदाय-तेरापंथ के प्राचार्य है। बचपन से ही परम्परा और मर्यादा के पालन करने और कराने का उनका चिराचरित अभ्यास रहा है। इसलिए उनसे यह आशा करना तो दुराशा ही होगी कि वे किसी भाव-प्रतिक्रिया के प्रावेश में प्राकर नारी के विद्रोह का शंखनाद करने लगंगे, परन्तु 'अग्नि-परीक्षा' की कुछ ज्वलन्त पंक्तियाँ नारी के निपीड़न और पुरुषों को स्वेच्छाचारिता और स्वार्थपरायणता को इतनी प्रखरता के साथ उपस्थित करती हैं कि समाज का यह मूलभूत वैषम्य-जो और कुछ भी हो, सत्य और न्याय के प्राधार पर प्रतिष्ठित नहीं है-अपनी नग्न वास्तविकता के साथ हमारे सामने आ जाता है।
नारी का अस्तित्व रहा नर के हाथों में, नारी का व्यक्तित्व रहा नर के हाथों में,