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आचार्यश्री तुलसी की जन्म कुण्डली पर एक निर्णायक प्रयोग
मुनिधी नगराजजी
व्यक्ति जन्म से महान् नहीं, अपने कर्तृत्व से महान् बनता है। प्राचार्यश्री तुलसी के सम्बन्ध में भी यही बात है । जिस दिन प्रापका जन्म हुमा, वह परिवार के लोगों के लिए कोई अनहोनी बात नहीं थी। अपने भाइयों में आपका क्रम पाँचवाँ था। उस समय किसने पहचाना था कि कोई महान् व्यक्तित्व हमारे घर में थाया है । स्यात् यही कारण हो कि घरवालों ने आपके जन्म ग्रहों का भी अंकन नहीं करवाया। आज प्रापका कर्तृत्व देश के कण-कण में व्याप्त हो रहा है। देश के अनेकानेक ज्योतिबिंद आपके जन्म ग्रहों की निश्चितता करने में लगे हैं। इसी बात को ध्यान में रखते हुए मैंने किसी प्रसंग पर निम्न श्लोक कहा था :
भ्रातृपुचमो जग्मग्रहाः केनापि ना पद्य ज्योतिवियो भूयो यतन्ते लग्नशोषने ।
श्राचार्य श्री तुलसी का जन्म विक्रम सं० १९७१ कार्तिक शुक्ला द्वितीया मंगलवार की रात का है। मातृश्री वदनांजी को इतना और याद है कि आपका जन्म पिछली रात का हुआ था। क्योंकि उस समय आटा पीसने की चक्कियाँ चल पड़ी थीं। इससे आपकी जन्म कुण्डली का कोई निश्चित लग्न नहीं पकड़ा जा सकता । अनेकानेक ज्योतिषियों ने कर्क लग्न से लेकर तुला लग्न तक आपकी विभिन्न कुण्डलियाँ निर्धारित की हैं। कुछेक ज्योतिषियों ने आपका जन्म लग्न कर्क माना है तो किसी ने सिंह, किसी ने कन्या, तो किसी ने तुला मृगु संहिताओं से भी लग्न शुद्धि पर विचार किया गया, परन्तु स्थिति एक निर्णायकता पर नहीं पहुँची ।
प्राचार्यवर की कलकत्ता यात्रा में किसी एक भाई ने मुझे बताया कि यहाँ पर एक ऐसे रेखा शास्त्री हैं जो केवल
हाथ की रेखाओं से यथार्थ जन्म कुण्डली बना देते हैं। उन्हीं दिनों और भी लोग मिले जो इस बात की पुष्टि करते थे । उन्होंने बताया हमारी जन्म कुण्डलियाँ जन्मकाल से ही हमारे घरों में बनी हुई थीं। प्रयोग मात्र के लिए हमने रेखानुगत कुण्डलियाँ भी बनवाई थीं। मिलाने पर वे दोनों प्रकार की कुण्डलियाँ एक प्रकार की निकलीं।
我 बहुत दिनों से सोचता था, प्राचार्यवर के जन्म लग्न को पकड़ने में हस्तरेखा का सिद्धान्त एकमात्र आधार बन सकता है। ज्योतिष और हस्तरेखा इन दो विषयों में गति रखने वाले यह भली-भाँति जानते हैं कि हस्त रेखाओं और जन्म ग्रहों के पारस्परिक सम्बन्ध क्या हैं? मेरे सामने इससे पूर्व ही कुछ ऐसे प्रयोग श्रा चुके थे। मन में प्राया प्राचार्यवर के जन्म लग्न पर भी हमें यह प्रयोग अपनाना चाहिए।
अगले दिन श्राचार्यवर से आज्ञा लेकर हम देवशभूषण पं० लक्ष्मणप्रसाद त्रिपाठी रेखाशास्त्री के घर पहुँचे । उनसे इस सम्बन्ध में बातें कीं। मन में सन्तोष हुआ। उन्होंने कहा - आप प्राचार्यवर के दोनों हाथों के छापे तैयार कर लीजिये। जिन्हें सामने रखकर मैं उनके संग व तिथि से लेकर लग्न तक विचार कर सकूँ। इसमें आचार्यवर को अधिक समय इस प्रयोजन के लिए नहीं देना होगा ।
अगले दिन त्रिपाठीजी ने भी आचार्यवर के दर्शन किये। मुनि महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' ने उनके कथनानुसार मुद्रणमसि से प्राचार्यंवर के दोनों हाथों के छापे उतारे। उन्हें लेकर हम लोग मध्याह्न में फिर उनके यहाँ गये। छापा उनके सामने रखा। उन्होंने उसका अध्ययन किया और हमें कुण्डली लिखने को कहा। हमें सन्तोष हुआ। यह सोचकर कि इन्होंने रेखा के आधार से संवत्, तिथि बार, आदि ठीक बतलायें हैं तो लग्न के ठीक न होने का कोई कारण नहीं रह