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धरा के हे चिर गौरव साम्बीभी जयश्रीजी
जियो हजारों साल धरा के हे महामानव ! प्रागत और अनागत की संकुल रेखा में तुम कब सिमटे धरती के हे नित नव उज्ज्वल! तुमने अपनी अमर सूझ से वर्तमान को समझा पर कब समझ सका युग तुमको परिमल । जिमो हजारों साल घरा के हे चिर वैभव । तुमने ही प्राणों के मिष था स्वर उँडेला पीड़ित सांसों से आहत जीवन-सरगम में अंकुर बनकर तुम आये; इस नभ-धरती के उच्छवासों-निःश्वासों के झिलमिल संगम में जियो हजारों साल धरा के हे चिर गौरव ।
पी नकर
के सिर गोल
लघु महान् की खाई
साध्वीश्री कनकप्रभाजी
सत्य साधना के बल से पालोक अनोखा पाया तमः पुज परिव्याप्त पंथ में उसको है फैलाया चाह तुम्हारी यह वसुधा अब स्वर्ग तुल्य बन जाये नैतिकता के गान घरा का कण-कण फिर से गाये पाट नुके तुम साम्य भाव से लघु महान् की खाई।
तपःपूत मुनिश्री मणिलालजी
तपःपूत ! तुमने ही युग को नव प्रकाश दे अन्धकार में भूले भटके पड़ते-गिरते हर राही को मंजिल का विश्वास दिखाया खोई-सोई मानवता को माशा का मालोक दिलाया।