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अर्चना
श्री जबरमल भण्डारी अध्यक्ष, बीजे० ३० ते महासभा, कलकत्ता
श्रद्धा व्यक्ति के कार्यों के प्रति होती है और भक्ति उसके व्यक्तित्व के प्रति । जिस व्यक्ति में दोनों का समावेश होता हो, वह उसका माराध्य बन जाता है। कोई भी अपने पाराध्य के प्रति अपने भावों को शब्दों में बाँधना चाहे तो बह महान दुष्कर कार्य होगा। जैसे कहा भी गया है :
भाषाक्या है भावों का लंगड़ाता सा अनुवाद बिल्कुल सत्य है । परन्तु यह भी सत्य है कि भाषा के माध्यम से ही भाव व्यक्त किये जा सकते हैं।
"तेरा चित्र (व्यक्तित्व) और तेरे पादेश व विचार (कार्य) सदा मेरे हृदय में रहते हैं, जिन्हें देख अक्सर लोग पूछ बैठते हैं मैं तेरा कौन ?"
"मैं यह जानते हुए भी, मैं तेरा कौन हूँ, लोगों के समक्ष स्पष्टीकरण नहीं कर पाता।" "तब क्या इस रहस्य का उद्घाटन तू ही न कर सकेगा।"
उपरोक्त पंक्तियाँ मैंने आचार्यश्री तुलसी के प्रति कुछ वर्षों पूर्व लिखी थीं, परन्तु मैंने सोचा, गंभीरता पूर्वक मोचा, और इस नतीजे पर पहुंचा कि आदेशों और विचारों को हृदय में केवल रखने से ही काम नहीं चलेगा, उन्हें तो जीवन में लक्ष्य बना कर उतारना होगा।
तूने तेरे शक्ति-स्रोत से थोड़ी-सी सुधा पिलाई, जिसके बल मे मैं निर्भय होकर अबाध गति से अपने लक्ष्य की पोर बढ़ने लगा।
तेरे आदेशानुसार सम्प्रदायवाद का रंगोन चश्मा हटाकर दृष्टि का शोधन किया तो यथार्थता के दर्शन होने लगे।
दूसरों के दोष देखने की आदत जो मेरे में थी, तेरी प्रेरणा से छुटने लगी; अपने दोपों को देखने में प्रवृत होने लगा। सम्यग् दृष्टि बना।
जब मैंने मेरे प्रति व्यंग्य सुने, घबराया, लड़खड़ाया, तेरे चरणों में प्रा पड़ा, बात रखी, तुझसे जीवन का सम्बल मिला। तूने मुझे अक्षरों को सूत्र में बांधने के लिए प्रेरित किया। जीवन में नवीन प्रकाश दिया कि पत्थर के बदले कभी ईट न फेंको। लक्ष्य-च्युत होने के अवसर भी मेरे जीवन में आये, पर तूने शिक्षा द्वारा ऊँचा उठाया।
इम पावन बेला में मेरी श्रद्धा-कुसुमाञ्जलि जो मेरे अन्तर हृदय मे उमड़ रही है, स्वीकार करो। यही मेरी अर्चना है।
तुम दीर्घ-जीवी बनो, मेरा व तेरापंथी समाज का ही नहीं, सारे ससार का पथ प्रदर्शन करते रहो।
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