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आचार्यश्री तुलसी के जीवन-प्रसंग
मुनिश्री पुष्पराजजी
प्राचार्यश्री तलसी के जीवन को जिस किसी कोण से देखा जाये उसमें विविधतायों का संगम मिलता है। उनका बचपन, उनका मुनिजीवन व उनका ग्राचार्यकाल जन-जन को प्रनिर्वचनीय प्रेरणा देने वाला है। प्रस्तुत उपक्रम में उनके बाल्य जीवन व कुछ आचार्यकाल की घटनाओं का संकलन किया गया है, जिससे उनके जीवन का थोड़े में ही सर्वागीण अध्ययन किया जा सके। उनके बाल्य जीवन की घटनाएं उनके अपने शब्दों में संस्मरणों के रूप में दी गई है और आचार्यकाल की घटनाओं को एक दर्शक के शब्दों में
होनहार बिरवान के होत चीकने पात
प्रातःकाल भाभी ने हाथ पर पैसे रखते हुए याज्ञा के स्वर में कहा-मोती ! लोहे के कोने ले आओ। उस समय मेरी या मान वर्ष के करीब होगी। मैंने नेमीचन्दजी कोठारी की दुकान से कोने में लिए उन्होंने नहीं लिए, चूंकि ये मेरे मामा होते थे। मे घर की ओर चला आया। भाभी के हाथ में पैसे और कोने दोनों रख दिये। भाभी ने सापर्य कहा यह कैसे ? वैसे भी और को भी ? मैंने सहज भाव से कहा, मामा जो ठहरे। "लसी ! पैसे यदि तू रख लेता, तो मुझे क्या पता लगता ?" भाभी ने कहा।
"पता नही लगता, पर मेरी आत्मा तो मुझे कचोटती ?" मैंने बीच में ही बात काटते हुए कहा । "म्हारे हृदय में पैसे चुराने का चिन्तन तो हुआ होगा ?" भाभी ने मुस्कराते हुए कहा।
"मुझे अप्रामाणिकता से अत्यन्त घृणा है भाभी ! " मैने स्वर को तेज करते हुए कहा ।
भाभी के मुख से सहज निकल पड़ा, "यह कोई होनहार बालक प्रतीत होता है।" "होनहार बिरवान के होन बनेपा ।
इनके पीछे कौन ?
मेरे बचपन की एक घटना है। उस समय मैं केवल सात वर्ष का था। माताजी मुझे नहला रही थी। मैंने उस समय प्रश्न किया -- माँ ! मुझे पूजीमहाराज बहुत प्यारे लगते हैं ।
माँ बेटा ! वे बड़े पुण्यवान् पुरुष है।
बेटा माँ ! उनके चरण फूल जैसे बड़े ही कोमन है और वे पैदल चलते है, तब इनके पैरों में कांटे नहीं लगते क्या?
माँ - पुण्यवानों के पग-पग निधान होते हैं, बेटा !
बेटा माँ ! इनके पीछे पूजी महाराज कौन होगे ?
मो- (लाल आँख दिखाकर डाँटते हुए) मूखं कहीं का, हमारे पूजीमहाराज युग-युगान्तर तक अमर रहे । मां की लाल आँखों ने मेरे हृदय में उठते हुए प्रश्नों को मौन में परिणत कर दिया ।
सजा तो माफ हो गई, पर
एक बार की घटना है, मैं जंगल (पंचमी) से पुनः लौटते समय बालू के टीले से नीचे उतर रहा था कि इतने में