SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निष्ठाशील शिक्षक मुनिश्री दुलीचन्दजी प्राचार्यश्री तुलसी केवल भारत में ही नहीं, अन्तर्राष्ट्रीय जगत् मे ख्याति प्राप्त महापुरुष है । इसमें उनके मौलिक विचार और उन पर पूर्ण निष्ठा ही मुख्य कारण है। जैन परम्परा में, एक बड़े संघ के अधिनायक होने के कारण उन्हें अपने मंध में विद्या और प्रचार-कार्य में अनवरत रत रहना पड़ता है। जैन साधुओं के लिए नियमानुसार निरन्तर एक स्थान में रहना तो निषिद्ध है ही, फिर भी वे साधारणतः एक क्षेत्र में एक महीने तक और चातुर्मास की स्थिति हो तो एक क्षेत्र में चार महीने तक रह सकते हैं। इसके अतिरिक्त वे घूमते रहते हैं। किन्तु अानार्यश्री इमसे भी कुछ भागे बड़े और उन्होंने एक देशव्यापी यात्रा प्रारम्भ की। इन कुछ वर्षों में उन्होंने करीब १५-१६ हजार मील की यात्राएं की हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान, पंजाब, उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल आदि अनेक प्रान्तों में घूमघम कर उन्होंने जनता में नैतिकता की मशाल जगाई। यह सब कार्य चातुर्मास के अतिरिक्त निरन्तर विहार करते रहने पर ही बन पाया है। यदि एक-एक गाँव में महीने-महीने भर बैठे रहते तो इस प्रकार एक देशव्यापी यात्रा कभी सम्भव नहीं थी। पंदल विहार करते हुए भी उन्होंने अपने संघ में विद्या की एक मन्दाकिनी बहायी है। यह उनकी एक निष्ठा का फल है। प्रातः और मायं दोनों समय विहार करते रहना और उसके साथ-साथ अध्ययन कार्य भी चालू रखना, यह एक अनहोनी-सी बात लगती है । दिन-भर में १५-१६ मील चल लेने के पश्चात शरीर की क्या दशा होती है, यह तो सर्वविदित है ही। इसके उपरान्त भी प्राचार्यश्री अपनी शिष्य मगरली को विधाम करने की बेला में अध्ययन रत रखते थे। साधु-मत भी इस समय अत्यन्त मनोयोग के साथ अध्ययन कार्य में संलग्न रहते थे। कभी-कभी जब प्राचार्यश्री एकनिष्ट होकर अपने शिष्य समुदाय को अध्ययन करवाते तो प्राचीन महषि-मुनियों की याद हो पाती थी। आचार्यश्री अनेक कार्यों में व्यस्त होते हुए भी अपने शिष्यों को संस्कृत-व्याकरण, दर्शन, सिद्धान्त, साहित्य आदि अनेक कठिन विषयों का अध्ययन कराने में पूर्ण रुचि रखते है। इस प्रकार प्राचार्य प्रवर ने अध्ययन-परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए एक परीक्षाक्रम भी बनाया । योग्य, योग्यतर और योग्यतम यह एक परीक्षा क्रम है। योग्य में तीन वर्ष, योग्यतर में दो वर्ष और योग्यतम में दो वर्ष; इम प्रकार सात वर्ष का यह आध्यात्मिक शिक्षा-क्रम है । इस परीक्षाक्रम में अध्ययनार्थ कुछ वैदिवः, वौद्ध और जैनेतर धर्म के ग्रन्थ भी लिए गए हैं। उदाहरणार्थ---गीता, महाभारत, धम्मपद प्रादि-प्रादि । इस परीक्षा क्रम के ऊपर भी एक 'कल्प' नामक परीक्षा है जोकि दर्शन, सिद्धान्त, व्याकरण आदि किसी भी विषय में विशेषज्ञ होने की इच्छा रखने वाला दे सकता है । उपर्युक्त विहारादि की कठिनाइयों के बावजूद भी अनेक साधु संतों ने इस परीक्षा क्रम में परीक्षा देकर मफलता प्राप्त की है।। वस्तुतः यह देखा जाये तो प्राचार्यश्री के सान्निध्य में चलने वाला यह अध्ययन कार्य किसी भी विद्यालय से कम नहीं कहा जा सकता। इसको यदि हम एक चलता-फिरता विश्वविद्यालय भी कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। एक स्थान पर रह कर अध्ययन-अध्यापन होना बड़ा सरल है, किन्तु इस प्रकार ग्रामानुग्राम घूमते हुए इस कार्य में दक्षता प्राप्त कर लेना, एक टेढ़ी खीर है। यह एक प्राचार्यश्री जैसी तपःपूत आत्मा की प्रेरणा का ही सुफल है; अन्यथा आज हम देख रहे हैं कि अनेकानेक सुविधाओं व प्रलोभनों के बावजूद भी आज के विद्यार्थी कैसा अध्ययन करते हैं, यह किसी से
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy