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प्राचार्यश्री तुलसी अभिनन्दन ग्रन्थ
वस्त्रधारी, मॅझले कद के, एक जैन प्राचार्य साधु-साध्वियों से घिरे हमारे प्रणाम को मधुर-मन्द मुस्कान से स्वीकार करते हुए आशीर्वाद दे रहे हैं। गौर वर्ण, ज्योतिर्मय दीप्त नयन, मुग्व पर विद्वत्ता का जड़ गाम्भीर्य नहीं, बल्कि ग्रहणशीलता का तारल्य देख कर आग्रह की कटता धुल-पुछ गई। याद नहीं पड़ता कि कुछ बहुत बात हुई हों; पर उनके शिष्य-शिष्याओं की कला-साधना के कुछ नमूने अवश्य देखे । सुन्दर हस्तलिपि, पात्रों पर चित्रांकन ; समय का सदुपयोग तो था ही, साधुओं के निरालस्य का प्रमाण भी था। यह भी जाना कि यह साधु-दल शुष्कता का अनुमोदक नहीं है, कला में सौन्दर्य के दर्शन करने की क्षमता भी रखता है। सौम्य और प्राग्रह-विहीन
दूसरी बार जोधपुर में मिलना हुया । कोई उत्सव था, भाषण देने वालों और सुनने वालों की अच्छी-खासी भीड़
गत-सत्कार में भी कोई कमी नहीं थी। कुछ बहत अच्छा नहीं लगा। भाषण और भीड मे मुझे अरुचि है; और अगर स्वागत-सत्कार के पीछे सहज भाव नहीं है, तो वह भी एक बोझ बन कर रह जाता है । परन्तु यही पर प्राचार्यश्री तलसी को जी भर कर पास से देखा। विचार-विनिमय करने का अवसर भी मिला । बहुत अच्छी तरह याद है कि रात को वाल-दीक्षा आदि कुछ प्रश्नों को लेकर प्राचार्यश्री से काफी स्पष्ट बात हुई थीं। तभी पाया कि वे सौम्य और प्राग्रहविहीन हैं । अहिमा और अपरिग्रह के अपने मार्ग में उन्हें इतना सहज विश्वास है कि शकाल का समाधान करने में मस्तिष्क पर कुछ अधिक जोर देना नहीं पड़ता। पालोचना मे उत्तेजित नहीं होते। सहिष्णुता उनके लिए सहज है, इसीलिए उद्विग्नता भी नहीं है। है केवल एकाग्रता और प्राग्रह-विहीन पक्ष-समर्थन । वे कुशल वक्ता है। जो कुछ कहना चाहते है, बिना किसी आक्षेप के प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत कर देते हैं । आश्वस्त तो न तव हा था, न अाज तक हो सका हूँ; परन्तु विराट मानवता में उनकी अटूट आस्था ने मुझे निश्चय ही प्रभावित किया था। वह अणुव्रत-आन्दोलन के जन्मदाता है। उनकी दृष्टि में चरित्र-उत्थान का वह एक सहज मार्ग है। कवि की भांति मैं अणुव्रत की अणु-बम से काव्यात्मक तुलना नहीं कर सकता । करना चाहूँगा भी नहीं। उस सारे आन्दोलन के पीछे जो उदात्त भावना है, उसको स्वीकार करते हुए भी उसकी संचालन-व्यवस्था में मेरी आस्था नहीं है। परन्तु उन व्रतो का मूलाधार वही मानना है, जो कालानीत है, अभिन्न है और है प्रजेय ।
विश्व में सत्ता का खेल है । सत्ता, अर्थात् स्व की महिमा; इसीलिए वह अकल्याणकर है । इसी अकल्याण का दंग निकालने के लिए यह अणुव्रत-आन्दोलन है। इन सबका दावा है कि चरित्र-निर्माण द्वारा सन्ना को कल्याण कर बनाया जा सकता है। परन्तु मुझे लगता है कि उद्देश्य शुभ होने पर भी यह दावा ही सबसे बड़ी बाधा है। क्योंकि जहाँ दावा है, वहीं साधन और साधन जुटाने वाले स्वयं सत्ता के शिकार हो जाते हैं,इसीलिए उनके पास-पास दल उग आते हैं । पंमा देते है और देकर मन-ही-मन सहस्र गुना पाने की आकांक्षा रखते हैं । इसीलिए जैसे ही मिद्धि-प्राप्त व्यक्ति का मार्ग-दर्शन मूलभ नहीं रहता, वे सत्ता के दलदल में प्राकण्ठ फँस जाते हैं। स्वयं प्राचार्यश्री ने कहा है-"धन और राज्य की सत्ता में विलीन धर्म को विष कहा जाये तो कोई अतिरेक न होगा।" इससे अधिक स्पष्ट और कठोर शब्दों का प्रयोग हम नहीं कर सकते। क्रियात्मक शक्ति और संवेदनशीलता
पर शायद यह तो विषयान्तर हो गया। यह तो मेरी अपनी शंकामात्र है। इससे अणुव्रत-पान्दोलन के जन्मदाता की मानवता में प्राशंका क्यों हो! जो व्यक्ति निवृत्तिमूलक जैन धर्म को जन-कल्याण के क्षेत्र में ले पाया, मानवता में उसकी प्रास्था निश्चय ही अद्भत है। इसीलिए अनुकरणीय भी है। उनकी क्रियात्मक शक्ति और उनकी संवेदनशीलता निश्चय ही किसी दिन मानवता के रेगिस्तान को नाना वर्णों के पुष्पों से प्राच्छादित हरे-भरे सुरम्य प्रदेश में परिवर्तित कर देगी। कारलाइल ने कहीं लिखा है, "किसी महापुरुष की महानता का पता लगाना हो तो यह देखना चाहिए कि वह अपने से छोटे के साथ कैसा बर्ताव करता है।" प्राचार्यश्री स्वाभाव से ही सबको समान मानते हैं। बचपन से ही धर्म में उनकी रुचि रही है और ये संस्कार उन्हें अपनी मातुश्री की ओर से विरासत में मिले हैं। उन्होंने शूद्रों को कहीं छोटा