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भवतापअशेषा, हरननिशेशा दाता चिन्तित शर्म सदा ॥१५॥ ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथ जिनेन्द्राय पूर्णार्धं निर्वपामीति स्वाहा ॥ दोहा-श्रीमत विमलजिनेशपद, जो पूजो मनलाय। पूर्णा बांछित आश तसु। मैं पूजों गुनगाय ॥ १६ ॥
इत्याशीर्वादः । परिपुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् ! इति श्रीविमलनाथजिनपूजा समाप्त ॥ १३ ॥ श्रीअनन्तनाथजिनपूजा।
फवित्त छंद (मात्रा ३१ )। पुप्पोत्तर तजि नगर अजुध्या, जनम लियो सूर्याउर आय ।
सिंघसेन नृपके नंदन, आनंद अशेष भरे जगराय ॥ गुन अनंत भगवंत धरे, भवदंद हरे तुम हे जिनराय ।
थापतु हों अयबार उचरिक कृपासिन्धु तिष्ठहु इत आय ॥१॥
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