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[७१ घटा कर वांछित दिशा में बढ़ा लेना और उस दिशा की सीमा को सौ के बदले सवासौ मील कर लेना दिग्वत का अतिचार है। ..
.. कांक्षा (कामना) से व्रतों में कमजोरी आती है। ज्यों-ज्यों कामना की वृद्धि होती है, त्यों-त्यों उसकी पूर्ति के साधनों का संग्रह बढ़ाया जाता है
और उसके लिए दौड़-धूप भी बढ़ानी पड़ती है। स्पष्टतया इससे शान्ति भंग होती है और प्राकुलता बढ़ती है और अप्राप्त सामग्री को प्राप्त करने की धुन में मनुष्य प्राप्त सामग्री का आनन्द भी नहीं उठा सकता, फिर भी कामना का भूत उसके चित्त में प्रवेश करके उसे नचाता रहता है और नाना प्रकार की सुनहरी कल्पनाएं उसे बेभान बनाएं रहती हैं। यद्यपि ज्ञानी पुरुषों ने स्पष्ट कर दिया है कि वाह्य पदार्थों का संयोग दुःख का ही कारण होता है और वह संयोग जितना अधिक बढ़ेगा उतना ही अधिक दुःख बढ़ेगा, फिर भी मनुष्य इस ओर ध्यान नहीं देता और मोह के नशे में पागल बन कर सुख प्राप्त करने की अभिलाषा से दुःख की सामग्री बटोरता रहता है।
. शास्त्र में साधु को 'संजोगा विप्प मुक्कस्स' विशेषण लगाया गया है। यह विशेषण उसकी निराकुलता एवं शान्ति का सूचक है । संयोग से विमुक्त होना दुःखों से छुटकारा पाना है, क्योंकि एक प्राचार्य कहते हैं- संयोग मूला जीवेन, प्राप्ता दुःखपरम्परा।
- अनादि काल से जीव दुःखों से घिरा हुआ है और अब तक भी उसके दुःखों का कहीं ओर-छोर नजर नहीं आता, इसका मूल कारण परसंयोग है। पर-संयोग दो प्रकार का है-वाह्य और प्रान्तरिक, जिसे द्रव्य संयोग और भाव संयोग कह सकते हैं । धन-वैभव आदि भौतिक पदार्थों का संयोग बाह्य और क्रोध, लोभ, मोह, ममता आदि वैभाविक भावों का संयोग आन्तरिक संयोग है। इनमें से वाह्य संयोग से विमुक्ति पाना उतना कठिन नहीं है जितना आन्तरिक संयोग से। . ...... काम, क्रोध आदि विकार जीव को अपने स्वरूप की ओर उन्मुख नहीं होने देते। ज्यों-ज्यों ये विकार घटते जाते हैं, बाहरी दौड़धूप स्वतः कम