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। ६६ सेवन करता है। जो लोग विषय और कषाय के पंजे में पड़े रहते हैं, उनको शास्त्र समझाना भी कठिन होता है।
....: . .. प्रमाद आकर मनुष्य के हृदय पर जब अधिकार जमा लेता है तो श्रवण और वक्तव्य में शिथिलता आ जाती हैं। वास्तव में यही दोनों बाधक सर्वविरति और देशविरति की साधना को मलीन बनाते हैं । इसी कारण शास्त्र इन बाधक तत्त्वों से साधक को सावधान करता है। लोभ कषाय परिग्रह परि. माण व्रत का विशेष रूप से बाधक है । कई साधक इसके प्रभाव से अपने व्रत को दूषित कर लेते हैं । उदाहरणार्थ-किसी साधक ने चार खेत रखने की मर्यादा की। तत्पश्चात् उसके चित्त में लोभ जगा। उसने बगल का खेत खरीद लिया और पहले वाले खेत में मिला लिया । अब वह सोचता है कि मैंने चार खेत रखने की जो मर्यादा की थी, वह अखण्डित है। मेरे पास पांचवां खेत नहीं है । इस प्रकार आत्म वंचना की प्रेरणा लोभ से होती है । इससे व्रत . दूषित होता है और उसका असली उद्देश्य पूर्ण नहीं होता।
- अणुव्रतों को निर्मल बनाये रखने के लिए अन्य. सहायक व्रतों का पालन करना भी आवश्यक है। अतएव अणुवती साधक को उनकी ओर ध्मान देना चाहिए । शास्त्रों में उन्हें उत्तर व्रत या उत्तर गुण कहते हैं । वे भी दो भागों में विभक्त हैं-गुण व्रत और शिक्षानत । तीन गुणव्रत और चार शिक्षाक्त मिलकर सात होते हैं। पांच मूलव्रत (अणुव्रत) इनमें सम्मिलित कर दिए जाएं तो उनको संख्या बारह हो जाती है। यही श्रावक के बारह वता ... ...... ... .... .. .
. अणुव्रतों का निर्दोष पालन करने के लिए श्रावक को अपने भ्रमण पर भी अंकुश लगाना चाहिए । जितना अधिक घूमना होगा, उतना ही अधिक हिंसा, झूठ और परिग्रह का विस्तार बढ़ेगा। गमनागमन का क्षेत्र बढ़ेगा तो कुशील, मोह-ममता और अदत्तग्रहण की संभावना बढ़ेगी। वस्तुओं का किया हुआ, परिमाण भी अपना रूप बढ़ा लेगा। इस कारण व्रती गृहस्थ अपने गम नांगमन की भी सीमा निर्धारित कर लेता है । तथ्य यह है कि पापों के संकोच करने को दृष्टिकोण बढ़ाया जाना चाहिए । इच्छा को. बेलगाम नहीं होने देना