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[६७ कहा-गुरुदेव, आपके श्रीचरणों की कृपा और महिमा से मैंने रूपाकोशा को श्राविका बना दिया है । अब वह वेश्या नहीं रही। उसके जीवन का कल्मष धुल गया है, वह अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर हुई है, उसके जीवन में महान् परिवर्तन आ गया है।
गुरु ने यह सब सुनकर कहा-'धन्य, धन्य, धन्य !' इस प्रकार तीन बार धन्य कह कर स्थूलभद्र की साधना की महान् प्रसंशा की । फिर बोलेतुमने दुष्कर ही नहीं, अति दुष्कर कार्य किया है।
गुरु के लिए सभी शिष्य समान थे। उनके चित्त में किसी के प्रति न्यून या अधिक सद्भाव नहीं था। फिर भी साधना की गुरुता को ध्यान में रख कर उन्होंने शिष्यों को धन्यवाद दिया । संभूति विजय बड़े प्रसन्न हुए और अपने शिष्यों की साधना के लिए गौरव अनुभव करने लगे। ऐसे आदर्श साधकों के वृत्तान्त से हमें अपना लौकिक और पारलौकिक कल्याण साधन करना चाहिए। . .