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उसे सहारा ही समझता है । कम-जोरी दूर होने पर वह लकड़ी का प्रयोग नहीं करता। अगर वह लकड़ी को ही साध्य मान ले और अनावश्यक होने पर भी हाथ में थामे रहे तो अज्ञानी समझा जाएगा।
इसी प्रकार व्रती श्रावक धन-वैभव आदि परिग्रह को जीवन यात्रा का सहारा समझता हैं, साध्य नहीं । धन अर्थात् परिग्रह को ही सर्वस्व समझ लेने से सम्यग्दृष्टि नहीं रहती। वह जो परिग्रह रखता है, अपनी आवश्यकताओं का विचार करके ही रखता हैं और उसका जीवन इतना सादा होता है कि उसकी आवश्यकताएं भी अत्यल्प होती हैं इस कारण वह आवश्यक परिग्रह की छट रखकर शेष का परित्याग कर देता हैं।
- डराने-धमकाने वाला यदि हाथ में बांस श्रा जाय तो उसी को लेकर दौड़ पड़ेगा। कमजोरी के कारण लकड़ी रखने का प्रयोजन दूसरा था किन्तु क्रोधावेश में उसका प्रयोजन दूसरा ही होता है-प्रहार करना । श्रावक परिग्रह का पूरी तरह त्याग नहीं कर पाता, यह उसकी दुर्बलता है । वह इसे अपनी दुर्बलता ही समझता है।
___ कभी-कभी ऐसा अवसर भी आ जाता है कि भ्रन, विपर्यास या मानसिक दुर्बलता के कारण मनुष्य व्रत की सीमा से बाहर चला जाता है वह समझता हैं कि मेरा व्रत-भंग नहीं हो रहा है। मगर वास्तव में व्रत भंग होता है । इस प्रकार का व्रतभंग अतिचार की कोटि में गिना जाता है। और जब व्रत से निरपेक्ष हो कर जानबूझ कर व्रत को खण्डित किया जाता है तो अनाचार कहलाता है । परिग्रह का परिमाण करने वाला श्रावक यदि धन, सम्पत्ति, भूमि आदि परिमाण से अधिक रख लेता है तो अनाचार समझना चाहिए और वैसी स्थिति में उसका व्रत पूरी तरह खंडित हो जाता हैं । पचास एकड़ भूमि का परिमाण करने वाला यदि साठ एकड़ रख लेता है तो यह जान वूझ कर व्रत की मर्यादा को भंग करना है और यह अनाचार है। . . कोई व्यक्ति एक मकान के बीच में दीवाल खड़ी कर दे तो एक के । बदले दो मकान कहलाएंगे। एक मकान के चार भाग कर दिये जाएं तो भी