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५८] करने से साधु का सर्वनाश होता है ! अधिक लाड़ लड़ाने से पुत्र, अविद्या से ब्राह्मण, कुपुत्र से कुल, दुर्जन की संगति से शील, मद्यपान से लज्जा, देखरेख नहीं करने से खेती, अधिक काल तक प्रवास से स्नेह, प्रम के अभाव से मैत्री और अनीति से समृद्धि तथा त्याग एवं प्रयाद से धन का नाश हो जाता है।
जैसे लकड़ी में लगा धुन उसे नष्ट डालता है, उसी प्रकार जीवन में प्रविष्ट दुर्व्यसन जीवन को नष्ट कर देता है । अतएव दुर्व्यसनी लोंगों की संगति से बचना चाहिए। अकर्तव्य से दुश्मनी रखनी चाहिए। जीवन को सदैव निर्मल और पवित्र बनाने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। भगवान् महावीर का संदेश है कि अपने जीवन का उत्थान और पतन मनुष्य के स्वयं के हाथ में है । कोई अदृश्य शक्ति या देवी-देवता हमारे जीवन को बना-बिगाड़ नहीं सकते । मनुष्य स्वयं ही अपना शत्रु और स्वयं ही अपना मित्र है । 'पुरिसा तुम मेव तुम मित्ता' आचा०
___ एक हितैषी ने संसारी लोगों को उद्बोधन करते कहा-मित्र ! जीवन की सरिता बह रही है, इस बहती हुई सरिता में कहीं तेरे जीवन की सम्पदा नष्ट न हो जाय । जरा संभल के चलना । कहा है
धर्म री गंगा में हाथ धोय ले नी रे !
चांदणो हुप्रो है, मोती पोय ले नी रे ! सत्पुरुष सदा से संसारी जीवों को सावचेत करते आ रहे हैं कि धर्म रूपी गंगा में अवगाहन करो। ऐसा करने से ही जीवन में शान्ति मिलेगी। गंगा तन को निर्मल और शीतल बनाती है परन्तु धर्म-गंगा आन्तरिक मन को मन की मलीनना को दूर करती है और जीवन को शान्त तथा सुखमय बना देती है । इससे काम की जलन और तृष्णा की प्यास दूर होती है।
मगर धर्म की गंगा उसी के जीवन में प्रवाहित होती है जिसके हृदय में देवी भावनाएं होती हैं । दानवी प्रकृति वालों से धर्म दूर ही रहता है।
. पुराणों में एक कथा आती है । सुन्द और उपसुन्द नामक आसुरी प्रकृति के दो भाई थे। उन्होंने शिवजी की आराधना की। भोले शंकर ने