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ज्यों के त्यों स्थिर बने रहे । नाग और निकट आया। इस बार उसने अपना मुंह मारा, फिर भी मुनि अडोल, अकम्प ! न उनका शरीर चलायमान हुआ
और न मन विचलित हुआ । सर्प विस्मय में पड़ गया। फिर सर-सर करके वह मुनि के गले में चिपट गया। विषविहीन-सा हो गया। जैसे गारुड़ी लोग सर्प को वश में कर लेते हैं, वैसी ही स्थिति इस सर्प की हो गई। .
.. जैसे समुद्र में विस्फोट होने से बम का विष विलीन हो जाता है। वैसे सर्प का विष मुनिराज के समता-सागर में विलीन हो गया । वह एक अनोखी स्थिति का अनुभव करने लगा।
मुनि की मनोदशा का विचार कीजिए। यह तो निश्चित है कि उनके मन में नाग के प्रति तनिक भी द्वष उत्पन्न नहीं हुआ। ऐसा होता तो नाग की हिंसक वृत्ति को ईधन मिल जाता और उसे डंक मार कर विषवमन करने का अवसर मिल जाता।
तो क्या मुनि के मन में भय का संचार हुआ ? किन्तु भय भी हृदय की दुर्बलता है और हिंसा का ही एक रूप है। भय उत्पन्न होने पर मनुष्य निश्चल, मौन और शान्त नहीं रह सकता। अतएव यह मानना स्वाभाविक है कि उनके मन में भय की भावना का भी आविर्भाव नहीं हुआ। और फिर मुनि के लिए भय का कारण ही क्या था ! जो आत्मा को अजर, अमर, अविनाशी, सत्-चित्-अानन्दमय मानता है और समझता है कि संसार का तीक्ष्ण से तीक्ष्ण शस्त्र भी आत्मा के एक प्रदेश को भी उससे अलग नहीं कर सकता, उसे भय क्यों उत्पन्न होगा ! अमूर्तिक आत्मा पर शस्त्र की पहुँच नहीं हो सकतीकहा भी है
_ 'नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः।' ।
___ शस्त्र आत्मा का छेदन नहीं कर सकते, आग उसे जला नहीं सकती। कोई भी भौतिक पदार्थ आत्मा का कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकता। जो वहिरात्मा हैं, शरीर को अपना समझते हैं, वे ही विष और शास्त्र से भयभीत होते हैं । जिन्होंने आत्मा के शुद्ध स्वरूप को पहचान लिया है, जो पौद्गलिक देह से