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मनुष्य का भी अगर खून करदे तो कोई अन्याय या अपराध नहीं कह सकेगा मगर यह सभ्यता की निशानी नहीं है । यह वर्वरता का बोलबाला ही कहा जाएगा।
. कई लोग कहते हैं- जब पशु बूढ़ा हो जाय और काम का न रहे तब उसका पालन-पोषण करने से क्या लाभ ? ऐसे लोग क्या अपने बूढ़े माँ-बाप को भी शूट या कत्ल कर देंगे ? जिन गायों, मैंसों और बैलों से भरपूर सेवा ली, अब जीवन के संध्याकाल में उन्हें कसाई को सौंप देना और उनके गले पर छुरी चलवाना क्या योग्य है ? क्या यही मनुष्य की कृतज्ञता है ? मगर आज यही सब हो रहा है । मनुष्य अपने को विश्व का एकाधिपति मान कर इतर प्राणियों के जिन्दा रहने के अधिकार को भी स्वीकार करने को तैयार नहीं है ।
दयावान् गृहस्थों का कर्तव्य है कि वे पशु- पक्षी आदि समस्त मनुष्येतर प्रणियों को अपना छोटा भाई समझें और उनके साथ वही व्यवहार करें जो बड़े भाई को छोटे भाई के साथ करना चाहिए । इतना न हो सके तो भी उनके प्रति करुणा का भाव तो रखना ही चाहिए। जब गाय-भैंस जैसे उपयोगी पशु वृद्ध हो जाएं तो उन्हें कसाई के हाथों न बेचे । पशु पालक इन को नहीं वेचेंगे तो कसाईखाने चलेंगे ही कैसे ?
आज आदिवासियों तथा अन्य पिछड़ी जातियों में दया की भावना तथा अन्य सद्भावनाएं उत्पन्न कर दी जाएं तो बड़ा भारी सामजिक लाभ हो सकता है इससे उनकी आत्मा का जो कल्याण होगा, उसका तो कोई मूल्य ही नहीं आंका जा सकता।
मगर पिछड़े एवं असंस्कृत जनों के सुधार के लिए कोरा कानून वना देने से कोई विशेष लाभ नहीं होगा। असली और मूलभूत बात हैं उनकी मनोभावनाओं में परिवर्तन कर देना । मनोभावना जब एकबार बदल जाएगी । तो जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन स्वतः या जाएगा फिर उनकी सन्तति परम्परा भी सुधरती चली जाएगी।
श्राप जानते हैं कि समाज व्यक्यिों के समूह से बनता हैं । अतएव