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लाभ ही है। पुराने जमाने में इन चीजों का ही दवा के रूप में प्रायः इरतेमाल
होता था। आज भी देहात में इन्हीं का उपयोग ज्यादा होता है । इन वस्तुओं .. .... को चूर्ण, गोली, रस प्रादि के रूप में तैयार कर लेना भेपज है। .........
अानन्द ने साधु-साध्वी वर्ग को दान देने का जो संकल्प किया उसका तात्पर्य यह नहीं कि उसने अन्य समस्त लोगों की ओर से पीठ फेर दी। इसका . यह अर्थ कदापि नहीं है कि वह दुखी, दीन, पीडित, अनुकम्पापात्र जनों को ..
दान ही नहीं देगा। सुख की स्थिति में पात्र-अपात्र का विचार किया जाता है, दुःख की स्थिति में पड़े व्यक्ति में तो पात्रता स्वतः श्रा गई। अभिप्राय यह है कि कर्म निर्जरा की दृष्टि से दिये जाने वाले दान में सुपात्र-कुपात्र का विचार । होता है किन्तु अंनुकम्पा बुद्धि से दिये जाने वाले दान में यह विचार नहीं किया .. जाता । कसाई या चोर जैसा व्यक्ति भी यदि मारणान्तिक कष्ट में हो तो : उसको कष्ट मुक्त करना; उसकी सहायता करना और दान देना भी पुण्यकृत्य है, क्योंकि वह अनुकम्पा का पात्र है। दाना यदि अनुकम्पा की पुण्यभावना से प्रेरित होकर दान देता है तो उसे अपनी भावना के अनुरूप फल की प्राप्ति होती है । इस निमित्त से भी उसको ममता में कमी होती है।
गृहस्थ प्रानन्द भगवान महावीर स्वामी की देशना को श्रवण करके और व्रतों को अंगीकार करके घर लौटती है। उसने महा प्रमु महावीर के :चरणों में पहुँच कर उनसे कुछ ग्रहण किया। उसने अपने हृदय और मन का । पात्र भर लिया। प्राप्त पुरुष की वाणी श्रवण कर जैसे अानन्द ने उसे अपने . जीवन व्यवहार में उसे उतारने की प्रतिज्ञा की, उसी प्रकार प्रत्येक श्रावक को व्यावहारिक रूप देना चाहिए। ऐसा करने से ही इहपरलोक में कल्याण होगा !
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जीवन में श्रामोद-प्रमोद के भी दिन होते हैं । जीवन का महत्त्व भी.. हमारे सामने हैं। यथोचित सीख लेकर हमें उस महत्त्व को उपलब्ध करना है।
यो तो मेला बहुतं करते हैं किन्तु मुक्ति का मेला मनुष्य कर ले, प्राध्यात्मिक .. जीवन बना ले तो उसे स्थायी आन्नद प्राप्त हो सकता है । कवि ने कहा है