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इनको स्थान देना चाहिए। संयम एवं तप से विहीन जीवन किसी भी क्षेत्र में सराहनीय नहीं बन सकता। कुटुम्ब, समाज, देश आदि की दृष्टि से भी वही जीवन धन्य माना जा सकता है जिसमें संयम और तप के तत्त्व विद्यमान हों।
मोटर कितनी ही मूल्यवान् क्यों न हो, अगर उसमें 'ब्र ेक' नहीं है तो किस काम की ? व्र ेक विहीन मोटर सवारियों के प्राणों को ले बैठेगी। संयम जीवन का ब्र ेक है । जिस मानव जीवन में संयम का ब्रेक नहीं, वह श्रात्मा को
डुवा देने के सिवाय और क्या कर सकता है ?
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मोटर के ब्रेक की तरह संयम जीवन की गतिविधि को नियंत्रित करता है और जब जीवन नियंत्रण में रहता है तो वह नूतन कर्मबन्ध से बच जाता है। तपस्या पूर्वसंचित कर्मों का विनाश करती है। इस प्रकार नूतन बंधनिरोध और पूवाजित कर्मनिर्जरा होने से आत्मा का धार्मिक भार हल्का होने लगता है और शनैः शनैः समूल नष्ट हो जाता है । जब यह स्थिति उत्पन्न होती है तो आत्मा अपनी शुद्ध निर्विकार दशा को प्राप्त करके परमात्मपद प्राप्त कर लेती है, जिसे मुक्तदशा, सिद्धावस्था या शुद्धावस्था भी कह सकते हैं ।
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इस विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि जीवन में संयम एवं तप की साधना श्रत्यन्त उपयोगी है । जो चाहता है कि मेरा जीवन नियंत्रित हो, मर्यादित हो, उच्छ खल न हो, उसे अपने जीवन को संयत बनाने का प्रयास करना चाहिए । तीथङ्कर भगवन्तों ने मानव मात्र की सुविधा के लिए, उसकी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए साधना की दो श्रेणियाँ या दो स्तर नियत किये हैं
(१) सरल साधना या गृहस्थधर्म श्रौर (२) ग्रनगार साधना या मुनिधर्म |
अनगार धर्म का साधक वही गृहत्यागी हो सकता है जिसने सांसारिक मोह-ममता का परित्याग कर दिया है, जो पूर्ण त्याग के कंटकाकीर्ण पथ पर