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तात्पर्य यह है कि यदि वस्तु ठीक न हो तथा भावना दूषित हो तो उसके दान से लाभ नहीं होगा। वही दान विशेष लाभप्रद होता है जिसमें... : चित्त, वित्त और पात्र की अनुकूल स्थिति हो। ..
गृहस्थ साधक की भावना सदा दान देने की रहती है। वह चौदह प्रकार .. की चीजें अतिथियों को देने की इच्छा करता है। इसी को मनोरथ भी कहते हैं । ये वस्तुएं हैं
चार प्रकार का आहार अर्थात्-(१) अशन (२) पान (३) पक्वान्न आदि खाद्य (४) मुखबास आदि स्वाद्य तथा (५) वस्त्र (६) पात्र (७) कम्बल (८) रजोहरण (६) पीठ-चौकी-वाजौठ (१०) पाट (११) सोंठ, लवंग आदि ।
औषधि (१२) भैषज्य-बनी हुई दवा (१३) शय्या-मकान और (१४) संस्तारक अर्थात् पराल आदि घास। . उल्लिखित पदार्थों की दो श्रेणियां हैं-नित्य देने-लेने के पदार्थ और . किसी विशेष प्रसंग पर देने-लेने योग्य। .
___ यह सभी वस्तुएं साधुओं को गृहस्थ के घर से ही प्राप्त हो सकती हैं और गृहस्थ के यहां से तभी मिल सकती हैं जब वह स्वयं इनका प्रयोग करता हो । श्रावक का कर्तव्य है कि वह साधु की संयमसाधना में सहायक बने । राग के वशीभूत होकर ऐसा कोई कार्य न करे या ऐसी कोई वस्तु देने का प्रयत्न न करे जिससे साधु का संयम खतरे में पड़ता हो । यदि गृहस्थ सभी रंगीन दुशाला - योढ़ने वाले हों तो साधुओं को श्वेत वस्त्र कहां से देंगे? साधु तीन प्रकार के .. पात्र ही ग्रहण कर सकते हैं-तूम्बे के, मिट्टी के या काष्ठ के। अभिप्राय यह..
है कि श्रावक यदि विवेकशील हों तो साधुओं के व्रत का ठीक तरह पालन हो ... : "सकता है। -: (४) मात्सर्य-मत्सरभाव । दान देना भी अतिचार है। मेरे पड़ौसी ने
ऐसा दान दिया है, मैं उससे क्या हीन हूँ ! इस प्रकार ईर्षा से प्रेरित होकर . दान देना उचित नहीं।.
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