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होगा। अतएव जो गृहस्थ और विशेषतः श्राविका विवेकवान् है उसे सचित्त एवं अचित्त पदार्थों को मिला कर नहीं रखना चाहिए। ऐसा करने से उसे साधु को दान देने का अवसर मिल सकता है और सहज ही लाभ कमाया जा सकता है।
(२) सचित्त से ढक देना-अचित्त वस्तु पर कोई भी सचित्त. वस्तु रख देना भी इस व्रत का अतिचार है । ऐसा करने से भी वही हानि होती है .... जो प्रथम अतिचार से होती है अर्थात् गृहस्थ दान से और दान के फल से वंचित रह जाएगा।
(३) कालातिक्रम-उचित समय पर अतिथि के आगमन की भावना करनी चाहिए । जो सूर्यास्त के पश्चात् और सूर्योदय से पूर्व आहार ग्रहण नहीं करते,उनके लिए ऐसे समय में आने की भावना करने से क्या लाभ ? दान देने से.. वचने के लिए काल का अतिक्रमण करके आगे-पीछे भोजन बनाना भी इस अतिचार में सम्मिलित माना गया है। वस्तु की दृष्टि से भी कालातिक्रम या कालातिक्रान्त अतिचार का विचार किया जा सकता है। जो वस्तु अपनी कालिक सीमा लांघ चुकी हो, उसे देना भी अतिचार है, चाहे वह जल हो, अन्न हो या कुछ अन्य हो। प्रत्येक खाद्य पदार्थ, चाहे वह पक्का अर्थात् तला हुआ हो या कच्चा हो, एक नियत समय तक ही ठीक हालत में रहता है। उसके बाद उसमें विकृति आ जाती है । वह सड़गल जाता है और उसमें जीवों ... की उत्पत्ति भी हो जाती है । उस हालत में वह न खाने योग रहता है, न देने योग्य ही। ..... बहुत-सी वहिने अज्ञान और लालच के वशीभूत होकर खाने-पीने की चीजें जमा कर रखती हैं और जब वे विकृत होती हैं तब उन्हें काम में लाती हैं। यह आदत लौकिक और लोकोत्तर दोनों दृष्टियों से हानिकारक है। विकृत
पदार्थों के खाने से स्वास्थ्य को भी हानि पहुँचती है और हिंसा के पाप से. .: आत्मा का भी अकल्याण होता है । कई बार तो आज की रोटी कल ही बिगड़