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इस प्रसंग में वैदिक धर्म का कथन भी हमें स्मरण हो पाता है जो इसमें बहुत अंशों में मिलता-जुलता है । वह है
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनंयम् ।
परोपकारः पुण्याय, पापाय परिपीडनम् ।। लम्बे-चौड़े अठारह पुराणों में व्यासजी ने मूल दो ही बातों का विस्तार किया है। वे दो बातें हैं
(१) परोपकार से पुण्य होता है । (२) पर को पीड़ा उपजाना पाप है।
इस प्रकार अहिंसा धर्म है और हिंसा पाप है, इस कथन में जैन शास्त्र और वैदिक शास्त्र का सार समाहित हो जाता है । दोनों के कथन के अनुसार शेष समस्त धार्मिक क्रियाकाण्ड अहिंसा के ही पोषक, सहायक का समर्थक हैं, यह निर्विवाद है।
. भारत वर्ष के दो प्रधान धर्मों के जो उल्लेख आपके समक्ष उपस्थित किये गये हैं, उनमें अत्यन्त समानता तो स्पष्ट है ही किन्तु थोड़ा-सा अभिप्राय-. भेद भी सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर प्रतीत हुए विना नहीं रहता। व्यासजी .
ने पर पीड़ा को पाप कहा है, मगर पर को पीड़ा पहुंचाना एक बाह्य क्रिया है। .....पर बाहर की क्रिया किससे प्रेरित होती है ? उसका मूल क्या है ? इस प्रश्न. . का उनके कथन में उत्तर नहीं मिलता। व्यासजी ने इस बारीकी का विश्लेषण
नहीं किया। मगर प्राचार्य अमृतचन्द्र ने उस ओर ध्यान दिया है । अन्तःकरण : में राग-द्वेष रूप विकार जव उत्पन्न होता है तभी मनुष्य दूसरों को पीड़ा
पहुँचाता है । इस कारण प्राचार्यजी ने रागादि को हिंसा कहा है. । इस कथन ... की विशेषता यह है कि कदाचित् परपीड़ा उत्पन्न न होने पर भी रागादि के - उदय से जो भावहिंसा होती है, उसका भी इसमें समावेश हो जाता है। इस . ... प्रकार जैनागम की दृष्टि मूल-स्पर्शिनी और गम्भीर है।