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कषाय की अधिक मन्दता होने पर अणुव्रत आदि प्रारंभ होते हैं। इससे स्पष्ट है कि व्रतों की प्रादि सम्यक्त्व है और सम्यक्त्व को सामायिक में परिगणित . किया गया है, अतएव सम्यक्त्व और श्रत सामायिक मे प्रादि में मानना उचित ही है।
एक चूल्हे-चौके का काम करने वाली महिला और दूकान पर बैठा व्यवसायी यदि सम्यक्त्व सामायिक से सम्पन्न होगा तो उसे सदैव यह ध्यान रहेगा कि मेरे निमित्त से, मेरी असावधानी से किसी भी जीव-जन्तु को पीड़ा न पहुँचे । चूल्हे और व्यवसाय का काम चल रहा है और वह महिला तथा पुरुष सामायिक भी कर रहे हैं । वाह्य दृष्टि से यह सामायिक नहीं है पर यदि वास्तव में सामायिक न हो तो वह हिंसा को कैसे बचाएगा ? अतएव कहा गया . है कि वहां सामायिक की प्रादि है। .. और अन्त में, जहां त्याग की पूर्णता है वहां तो सामायिक है ही। . अनर्थ दण्ड विरमण बन के पश्चात् सामायिक को स्थान देकर महावीर स्वामी ने एक महत्वपूर्ण वात यह सूचित की है कि भोगोपभोग की वृत्ति पर अंकुश रखना चाहिए । ऐसा करने से साधना के मार्ग में शान्त और स्थिर दशा सुलभ होगी। शान्ति और स्थिरता के बिना साधना नहीं हो सकती। जो स्वय अशान्त रहेगा वह दूसरों को कैसे शान्ति प्रदान कर सकता है ?
__ महापुरुष साधना के मार्ग में सफल हुए, स्वयं शान्ति स्वरूप बन गए और दूसरों के पथप्रदर्शक बन गए । महावीर स्वामी ने आनन्द का पथ प्रदर्शन किया । भद्रबाहु ने स्थूलभद्र को योग्य पात्र जान कर उनका पथप्रदर्शन किया। उन्हें श्रत का अभ्यास किया। श्र ताभ्यास के लिए पांच अवगुणों का परित्याग करना अत्यावश्यक है--
थंभा कोहा पमाएणं रोगेणालस्सएण य ।
-उत्तराभ्ययन अ० ११-३