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जैसे बूंद-बूद पानी निकालने से बड़े से बड़े जलाशय का भी पानी खत्म हो जाता है, उसी प्रकार भोगोपभोग पर नियंत्रण करते-करते हिसा को समाप्त किया जा सकता है । ग्रतएव मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी इच्छाओं को वश में रक्खे और आवश्यकताओं का प्रतिरेक न होने दे । श्रावश्यकतानों के बढ़ जाने से वांछित वस्तु न मिलने पर वैयक्तिक तथा सामूहिक संघर्ष बढ़ता है ।
सभी देशों में साधारणतया जीवन निर्वाह के योग्य सामग्री उपलब्ध रहती है किन्तु जव भोगोपभोग की वृत्ति का प्रतिरेक होता है तब उसकी पूर्ति के लिए वह दूसरे देश का शोपण करने को तत्पर होता है । चीन इसी प्रकार के प्रतिरेक के कारण भारत पर ग्रामरण कर रहा है । युग-युगान्तर से भोगोपभोग की बढ़ी चढ़ी श्रावश्यकता ने संसार को प्रशान्त वना रक्खा हैं । संसार को सुधारना कठिन है, परन्तु साधक स्वयं अपने को सुधार कर तथा अपने ऊपर प्रयोग करके दूसरों को प्रेरणा दे सकता है । जो स्वयं जिस मार्ग पर न चल रहा हो, दूसरों को उस मार्ग पर चलने का उपदेश दे तो उसका प्रभाव नहीं पड़ सकता । जो स्वयं हिंसा के पथ का पथिक हो वह यदि अहिंसा पर वक्तृता दे तो कौन उसकी बात मानेगा ? लोग उलटा उपहास करेंगे। श्रतएव अगर दूसरों को सन्मार्ग पर लाना है, यदि मानसिक सन्तुलन की स्थिति जीवन में उत्पन्न करना है, मन की विकृतियों को हटाना हैं, हृदय को शान्त र चिन्ताहीन बनाना है तो साधक को सर्वप्रथम अपने पर नियन्त्रण स्थापित करना चाहिए। ऐसा करने पर पूर्व शान्ति का लाभ होगा । श्रात्म संयम करने की चीज है, कहने की नहीं । मिश्री वेचने वाला. 'मीठी है' कहने के बदले चखने को देकर शीघ्र अनुभव करा सकता है । धर्म के विषय में भी यही स्थिति है । पालन करने से ही उसका वास्तविक लाभ प्राप्त होता है ।
श्रानन्द ने श्रावकधर्म के पालन का दृढ़ संकल्प किया। उसने इस संकल्प के साथ व्रतों को अंगीकार किया कि मैं इन व्रतों में प्रतिचार नहीं लगने...