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[१५५. -:... अपनी वृत्तियों को नियंत्रित करने के लिए श्रावक भोग उपभोग के समस्त साधनों की भी एक सीमा निर्धारित कर लेता है । अभी इसी व्रत का विवेचन चल रहा है । इसी विवेचन के प्रकरण में कर्मादानों का उल्लेख किया. गया है और भाडी कम्मे तथा फोडी कम्मे के सम्बन्ध में कल कहा जा चुका है । इन कर्मों से स्थावर जीवों के साथ त्रस जीवों का भी प्रचुरता के साथ घात होता है । कुश्रा, खदान आदि खोदने में अनेकानेक जन्तुओं का विघात होजाता है । हल, कुदाल आदि से साधारण जन्तु योंही धक्का लगने से मर जाते हैं। कभी कभी बड़े जीव भी चपेट में आ जाते हैं । अतएव भूमि को फोड़ने का धंधा करना श्रावकोचित कार्य नहीं है । वह व्यावहारिक और आध्यामिक दोनों दृष्टियों से अप्रशस्त माना जाता है । .
कुछ आचार्यों ने स्फोट कर्म की व्याख्या करते हुए बारीक कदम उठाया है और चना आदि से दान बनाना भी इसमें शामिल कर दिया है। इस व्यवस्था के अनुसार इसका क्षेत्र व्यापक हो जाता है । किन्तु स्मरण रखना चाहिए कि कर्मादानों के त्याग का संबंध गृहस्थ श्रावकों के साथ है। इसके अतिरिक्त कर्मादान वही होता है जिसमें महान् प्रारंभ होता हो । अगर दाल बनाना भी कर्मादान में परिगणित कर लिया जाय तो इसी कोटि के अन्यान्य कार्यों को भी कर्मादानं गिनना होगा और ऐसी स्थिति में गृहस्थी के अनेक अनिवार्य दैनिक कार्य भी महारंभी-कर्मादान मान्य करने पडेंगे । व्रत न पालन करने का एक कारण भय की भावना है । लोग व्रत अंगीकार करने से डरते हैं। सोचते हैं- न जाने इस व्रत का पालन हो सकेगा या नहीं ? व्रत धारण न करने की अवस्था में मनुष्य उन्मुक्त रहता है, व्रत ग्रहण करते ही बन्धन में आना पड़ता है । इसी भय से कई लोग व्रत अङ्गीकार करने से बचना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में गृहस्थी के सामान्य कार्यों को भी अगर श्रावक के लिए कर्मादान कहं कर त्याज्य ठहरा दिया जाय तो ठीक नहीं होगा । शास्त्र में वर्णन आता है कि सकडाल पुत्र के ५०० वर्तनों की दुकानें थीं वह कुम्हार का काम करते हुए भी श्रावक था । ढंक नामक एक प्रजापति (कुम्हार) भी अच्छा श्रावक हो गया है, जिसने सुदर्शना साध्वी की श्रद्धा शुद्ध की। वह मिट्टी के बर्तनों की दुकान करता था और उन्हें पकाता भी था।