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१३६ प्राप्ति नहीं हुई है। अतएव सच्चा ज्ञानी वही है जो विरमण करने योग्य पदार्थों एवं भावों से विरत हो जाता और रमण करने योग्य सद्भावों में रमण करता है।
इसके विरुद्ध यदि रमण करने योग्य कार्यों एवं भावों से विरमण कर ले तो यह विरति कैसी ? मान से विरत होने के बदले यदि विनय से, क्रोध के वदले क्षमा से, हिंसा के बदले अहिंसा से और लोभ के बदले सन्तोष से विरत हो तो यह मिथ्या विरति है । साधक को वि-भाव से विरति करनी चाहिए,
आत्म स्वरूप में रमण और परपदार्थों से विरमणं करना चाहिए । स्व का परित्याग करके पर में रमण करना ही समस्त दुःखों का मूल है। अतएव साधक को निज गुणों में रति करके परगुणों से विरति करनी चाहिए। इससे उलटी प्रवृत्ति रही तो आत्मा सदा जन्म-मरण के विषम चक्र में ही भटकती रहेगी। उसका त्राण नहीं हो सकेगा।
परम ज्ञानी और सच्चा साधक वही है जो हेय और उपादेय को भलीभांति समझ कर हेय का त्याग करता हैं और उपादेय को ग्रहण करता है। ज्ञान और विश्वास अनुकूल या समीचीन हो कर परिपुष्ट हो जाएं, यही - विरति है । परिपक्व दशा और अनुकूल मौसिम होने पर वृक्ष में फल लगते हैं। ऐसे ही ज्ञान का परिपाक होने पर विरति की प्राप्ति होती है । हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य और परिग्रह से अलग होना विरति है। स्मरण रखना चाहिए कि साधारणतया पहले बाह्य पाप कर्मों से विरति होती है, तत्पश्चात् अन्तरंग पापों से विरति हो जाती है। महर्षियों ने हिंसा, झूठ, चोरी आदि बाह्य पापों को त्यागने का महत्त्व इसी कारण दर्शाया है । जो मनुष्य इनका त्याग कर देत है, उसके अन्तरंग पाप क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह आदि शनै शनैः शान्त हो जाते हैं। कारण यह है कि क्रोध आदि आन्तरिक पाप हिंसा आदि बाह्य पापों के कारण ही बढ़ते हैं, अतः जब बाह्य पाप घट जाते हैं तो, आन्तरिक पाप भी स्वतः घट जाते हैं। - कोई हमारी जमीन या अन्य वस्तु बलपूर्वक छीन लेता है या शरीर पर प्राधांत करता है तो क्रोध उत्पन्न होता है । ऐसी स्थिति में जो जमीन का त्याग