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[१२५ करेगा। अर्थोपार्जन करते समय और उसका उपभोग करते समय धर्म का विस्मरण नहीं करेगा। इस प्रकार पारस्पर विरोधी धर्म, अर्थ और काम का सेवन करते हुए वह अपने गृहस्थ जीवन को प्रादर्श बनाएगा और जब एकान्त धर्मसाधना का सामर्थ्य अपने में पाएगा तो गार्हास्थिक उत्तरदायित्व से अपने को मुक्त कर लेगा । एक प्राचार्य कहते हैं
परस्पराविरोधेन, त्रिवर्गो यदि सेव्यते ।
अनर्गलमदः सौख्य, मपवर्गो झनुक्रगमात् ॥ यदि त्रिवर्ग का अर्थात् धर्म, अर्थ और काम का सेवन इस प्रकार किया जाय कि कोई किसी के सेवन में बाधक न हो तो ऐसे मनुष्य लौकिक सुख के साथ त्यागी वनकर अनुक्रम से, मुक्ति भी प्राप्त कर लेते हैं।
साधक को अपना चिन्तन, स्मरण, भाषण और व्यवहार ऐसा रखना चाहिए जो लक्ष्य तक पहुँचाने में सहायक हो । अर्थ और काम की साधना में वहां रुक जाएगी जहां वह धर्म साधना में गतिरोध उत्पन्न करेगी । जैसे दुर्घटना की आशंका से चालक गाडी को रोक देता है, उसी प्रकार धर्मसाधना का साधक अर्थ एवं काम की गाड़ी को रोक देगा। श्रावक सदा सजग रहेगा कि काम और अर्थ कहीं धर्म के मार्ग में बाधक तो नहीं हो रहे हैं। उसके लिए धार्मिक साधना का दृष्टिकोण मुख्य हैं, अर्थ और काम गौणं हैं। गृहस्थः आनन्द ने इसी कारण अर्थ और काम पर रोक लगा दी थी।
पिछले दिनों अंगारकर्न और वन कर्म पर चर्चा की गई। जब कहीं कोई नवीन नगर बसाना होता है तो उस जगह के समस्त वृक्षों को कटवाना
और घास-फूस को जला देना पड़ता है । मगर व्रत की साधना को लेकर चलने वाले साधक के लिए ऐसे धंधे करना उचित नहीं हैं । वन के बड़े २ वृक्ष जब काटे जाते हैं तो अनेक पशु पक्षियों के घर-द्वार विनष्ट हो जाते हैं। यदि सहसा वृक्षों की कटाई हो तो पक्षी संभल नहीं पाते । उन पक्षियों का छोटा-मोटा पारिवारिक जीवन होता है। संभलने का अवसर न मिलने से उनके अंडे-बच्चे अादि सर्वनाश के ग्रास बन जाते हैं। कुछ पक्षी तो वृक्षों की कोटरों में ही घर