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१२०] साधक आठवें गुणस्थान से निरन्तर ऊँचे चढ़ते हुए बारहवें गुणस्थान में जा पहुँचते हैं और सिद्धि का झंडा गाड़ देते हैं । उनकी आत्मा में अनन्त ज्ञान की ज्योति जगमगाने लगती है। मध्यम साधक छठे-सातवें गुणस्थान तक ही रह जाता है । निम्न कोटि का साधक हीयमान दशा में वर्तता है। उसके परिणामों की धारा गिरती जाती है। भगवान् महावीर ने साधकों को सचेत. किया है
'जाए सद्धाए रिणक्खंतो तमेव अणु पालए।'
जिस श्रद्धा, आत्मवल, उत्साह और उल्लास से व्रतों को धारण किया है, उसे कम न होने दो । एक बार अन्तर में जो ज्योति जागृत हुई है, वह मन्द न पड़ने पाए, बुझ न जाए, साधक को सदैव इस बात की सावधानी रखनी चाहिए।
. सिंहगुफावासी मुनि जब रूपाकोशा के द्वार पर पहुँचा तब उसका अध्यवसाय अलग प्रकार का था। भिक्षा अंगीकार करने पर उस अध्यवसाय में परिवर्तन हो गया ! निस्पृह साधक कभी नहीं फिसलता, स्पृहावान् कभी भी फिसल सकता है । किसी ने ठीक ही कहा है... . चाह छोड़, धीरज धरे तो हो वेड़ा पार ।
मानसिक दुर्वलता मनुष्य को अधःपतन की ओर ले जाती है । सिंह गुफावासो मुनि ने दुर्बलता से ग्रस्त होकर रूपाकोशा से कहा-नेपाल का मार्ग कितना ही दुर्गम हो, भले अगम्य ही हो, मैं वहाँ से रत्नजटित कंबल लें ग्राऊँगा : जिसने सिंह की गुफा में चार मास-एक सौ बीस दिन-निर्भयता के साथ व्यतीत किये हों, उसे जंगल से क्या भय ! मैंने भय की वृत्ति पर पूरी कर विजय पाली है, अतएव आप मेरी बात पर अविश्वास मत लाइए । रत्न कंबल में ला देगा, किन्तु अभी यह साधना पूर्ण होने दीजिए।
एक. चाह से दूसरी चाह उत्सन्न होती है। रूपाकोशा समझ गई कि मुनि का मन विचलित हो गया है। वह इस रंगमहल के प्रलोभन में फंस गया