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१०२ मैं अनुमति तो दे नहीं सकता- इसके अधः पतन में कैसे निमित्त बन सकता है ? मगर मना करना भी उचित नहीं प्रतीत होता। मना करूंगा तो इसके चित्त में सदा शल्य बना रहेगा और यह निश्शल्य साधना नहीं कर सकेगा।
आवश्यक यह है कि कषाय का विष किसी प्रकार धुल जाए। यह सब सोच कर गुरुजी मौन हो रहे।
अन्य मुनिजन भी वर्षाकाल में अपनी-अपनी साधना में लगने की बात सोचने लगे । सिंह गुफावासी मुनि पाटलीपुत्र जा पहुंचे, जहाँ रूपाकोशा का घर है. । रूपाकोशा का पूरा मुहल्ला था। यद्यपि उसने वेश्यावृत्ति का परित्याग कर दिया था, फिर भी लोग उसके यहाँ आते-जाते थे।
मुनि भी उसके घर पहुंचे। उसने मुनि का यथोचित सन्मान किया। उसके अनुपम रूप-लावण्य ने, उसकी मधुर वाणी ने और विनम्रतापूर्ण
व्यवहार ने मुनि के मन को आकर्षित कर लिया। मुनि ने उससे कहा-मुझे .. अपने भवन में चातुर्मास्य व्यतीत करने की आज्ञा दीजिए।
___ चतुर रूपाकोशा ने दुनियां देखी थी । वह उड़ती चिड़िया को पहचानती । थी। मुनि के मन का भाव उससे छिपा नहीं रहा । उसने समझ लिया कि यह
मुनि स्थूलभद्र की बराबरी करना चाहते हैं, अन्यथा इतने बड़े पाटलीपुत्र को छोड़ कर मेरे यहाँ चौमासा व्यतीत करने का क्या हेतु हो सकता है ?
इन मुनि का शरीर तों स्थूलभद्र के शरीर के समान था, किन्तु स्थूलभद्र के अन्तर में विराजमान मनोदेवता के समान मन नहीं था। रूपाकोशा ने सोचा---मुनि को सीख मिलनी चाहिए किन्तु पतित नहीं होने देना चाहिए । अच्छा हुआ कि वे मेरे भवन में आए; अन्यत्र कहीं चले गए होते तो न जाने . क्या होता?
मन ही मन इस प्रकार सोच कर रूपाकोशा ने कहा-आप प्रसन्नता- पूर्वक यहाँ निवास करें; किन्तु मेरी मांगं आपको पूर्ण करनी होगी।
मुनि नहीं समझ पाए कि इसकी माँग क्या बला है ? वह तो इसी धुन . में थे कि किसी प्रकार इसके यहाँ ठहरने को स्थान मिल जाय । वे प्रमाणपत्र ।