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________________ [१] अस्तेय-अतिचार आत्मा स्वभावतः चिन्मय ,आनन्द घन, परमेश्वर सम्पन्न और परम विश द्ध है, तथापि अनादिकाल से उसके साथ विजातीय द्रव्यों का सम्मिश्रण हो रहा है। विजातीय द्रव्य का सम्मिश्रण ही अशुद्धि कहलाता है । आत्मा में यही अशुद्धि निरन्तर चली आ रही है । विजातीय द्रव्यों का - यह सम्मिश्रण ही जैन परिभाषा में बन्ध कहलाता है। भगवान् महावीर ने जिस साधनापथ का स्वय अवलम्बन किया और अपने अनुगामियों के समक्ष जिसे प्रस्तुत किया, उसका एक मात्र लक्ष्य बन्ध का निरोध करना और पूर्व संचित विजातीय तत्त्वों से अपने आप को पृथक करना है । इसी में साधना की सार्थकता है, समग्रता भी है । जिस साधक ने इतना कर लिया, समझ लीजिए वह कृतार्थ हो गया। उसे फिर कुछ भी करना शेष नहीं रहा। अतएव भगवान् महावीर · ने कहा है कि साधना के पथ पर अग्रसर होने से पहले साधक को दो बातें .समझ लेनी चाहिए-'किमाह बंधण वीरो, किवा जाणं तिउहइ ।' अर्थात् (१) गंध और बंध का कारण क्या है ? (२) बंध से छूटने का उपाय क्या है ? शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार बन्ध के कारण को 'पालव' कहा गया है। यदि आत्मा को एक सरोवर कल्पित किया जाय तो उसमें नाना दिशाओं से आने वाले विजातीय द्रव्यों अर्थात् कार्माण वर्गरणा के पुद्गलों को जल कहा जा सकता है । जिस सरोवर के सलिलागमन के स्रोत बन्द नहीं होते,
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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