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६.
* चौबीस तीर्थङ्कर पुराण*
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पूर्व बीत गये तब इन्होंने युवावस्थामें पदार्पण किया। उस समय उनके शरीर की शोभा बड़ी ही विचित्र हो गई थी। महाराज जित शत्रुने अनेक सुन्दरी कन्याओंके साथ उनका विवाह कर दिया और किसी शुभ मुहूर्तमें उन्हें राज्य देकर आप धर्म सेवन करते हुए सद्गतिको प्राप्त हुए। __ भगवान् अजितनाथने राज्य पाकर प्रजाका इस तरह शासन किया कि उनके गुणोंसे मुग्ध होकर वह महराज जित शत्रका स्मरण भी भूल गई। इन्होंने समयोपयोगी अनेक सुधार करते हुए वेपन लाख पूर्वतक राज्य लक्ष्मी का भोग किया अर्थात राज्य किया। ___ एक दिन भगवान् अजितनाथ महलकी छत्तपर बैठे हुए थे कि उन्होंने अचानक चमकती हुई विजलीको नष्ट होते देखा। उसे देखकर उनका हृदय विषयोंसे विरक्त हो गया । वे सोचने लगे कि "संसारके हर एक पदार्थ इसी विजलीकी तरह क्षण भंगुर है। मेरा यह सुन्दर शरीर और यह मनुष्य पर्याय
भी एक दिन इमी तरह नष्ट हो जावेगी। जिस लिये मेरा जन्म हुआ था उसके लिये तो मैंने अभी तक कुछ भी नहीं किया। खेद है कि मैंने सामान्य अज्ञ मनुष्योंको तरह अपनी आयुका बहुभाग व्यर्थ ही खो दिया। अब आजसे मैं सर्वथा विरक्त होकर दिगम्बर मुद्राको धारण कर वनमें रहूंगा। क्योंकि इन रङ्ग विरंगे महलों में रहनेसे चित्तको शान्ति नहीं मिल सकती।' इधर इनके चित्तमें ऐसा विचार हो रहा था उधर लौकान्तिक देवोंके आसन कंपने लगे थे। आसन कंपनेसे उन्हें निश्चय हो गया था कि 'भगवान् अजितनाथका चित्त वैराग्यकी ओर बढ़ रहा है' निश्चयानुसार वे शीघ्र ही इनके पास आये और तरह तरहके सुभाषितोंसे इनकी वैराग्यधाराको अत्यधिक प्रवर्द्धित कर अपने अपने स्थानपर चले गये। उसी समय तपाकल्याणका उत्सव मनानेके लिये वहां समस्त देव आ उपस्थित हुए। सबसे पहले, भगवान् ने अभिषेक पूर्वक 'अजिनसेन' नामके पुत्रके लिये राज्यका भार सौंपा और फिर अनाकुल हो वनमें जानेके लिये तैयार हो गये। देवोंने उनका भी तीर्थजलसे अभिषेक किया और तरह तरहके मनोहर आभूषण पहिनाये अवश्य, पा उनकी इस राग वर्द्धक क्रियामें भगवानको कुछ भी आनन्द नहीं
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