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* चौबीस तीथङ्कर पुराण *
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लिये तो सब ओरसे मोह छोड़कर कठिन तपस्याएं करनेकी आवश्यकता हैइन्द्रियों पर विजय प्राप्त करनेकी आवश्यकता है और है आवश्यकता आत्मध्यानमें अचल होनेकी" भगवान्की भव्य भारती सुनकर हर एकका चित्त द्रवीभूत हो गया था। राजा भरतने दृढ़ सम्यग्दर्शन धारण किया। कुरुकुल चूड़ामणि राजाने सोमप्रभ दानतीर्थके प्रवर्तक युवराज श्रेयान्स और भरतका छोटा भाई वृषभसेन इन तीन पुरुषोंने प्रभावित होकर उसी सभामें जिन दीक्षा ले ली और मति, श्रुत, अवधि, और मनः पर्ययज्ञान के धारक गणधर-मुख्य श्रोता बन गये । ब्राह्मी और सुन्दरी नामक पुत्रियां भी पूज्य पिताके चरण कमलोंके उपाश्रयमें आर्यिकाके व्रत लेकर समस्त आर्यिकाओंकी गणिनी-स्वामिनी हो गई थीं। कच्छ महाकच्छ आदि चार हजार राजा जो कि पहले मुनिमार्गसे भष्ट हो गये थे, भरत पुत्र मरीचिको छोड़कर वे सब फिरसे भावलिङ्ग पूर्वक सच्चे दिगम्बर मुनि हो गये थे। आदिनाथका पुत्र अनन्त वीर्य भी दीक्षित हो गया। श्रुतकीर्तिने श्रावकके व्रत लिये और प्रियव्रताने श्राविकाके व्रत ग्रहण किये । इनके सिवाय असंख्य नर नारियोंने ब्रत विधान धारण किये थे यहां | सिर्फ दो चार मुख्य मुख्य व्यक्तियोंका नामोल्लेख किया गया है। बहुतसे देव
देवियोंने अपने आपको सम्यग्दर्शनसे अलंकृत किया था। इस प्रकार भगवान् ।' का केवल ज्ञान महोत्सव देखकर भरत सम्राट राजधानी-अयोध्याको वापिस ।' लौट आये। लोगोंका आना जाना जारी रहता था इसलिये समवसरणकी भूमि ॥ देव मनुष्य और तिर्यञ्चोंसे कभी खाली नहीं होने पाती थी। । इन्द्रने जिनेन्द्र देवसे प्रार्थनाकी कि "हे देव ! संसारके प्राणी अधर्म रूप । 'सन्तापसे सन्तप्त हो रहे हैं। उन्हें हेय उपादेयका ज्ञान नहीं है इसलिये देश || 'विदेशोंमें विहारकर उन्हें हितका उपदेश देनेके लिये यही समय उचित है। किसी 'एक जगह जनताका उपस्थित होना अशक्य है अतएव यह कार्य जगह जगह विहार करनेसे ही सम्पन्न हो सकेगा"। इन्द्रकी प्रार्थना सुनकर उन्होंने 'अनेक देशोंमें विहार किया। वे आकाशमें चलते थे चलते समय देव लोग 'उनके पैरोंके नीचे सुवर्ण कमलोंकी रचना करते जाते थे। मन्द सुगन्धित हवा ' बहती थी,गन्धोदककी वृष्टि होती थी, देव जय जय शब्द करते थे, उस समय
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