________________
* चौबीस तीर्थकर पुराण *
-
-
a
-
सुपधुर शब्दोंमें हजार नामोंसे उनकी स्तुति की।
__ महाराज भरत राजसभामें बैठे हुए ही थे कि इतने में पुरोहितने पहुंचकर उनसे जगद्गुरु वृपभदेवके केवल ज्ञान होनेका समाचार सुनाया। उसी समय कञ्चकी-अन्तःपुरके पहरेदारने आकर पुत्रोतात्तिका समाचार सुनाया और उसी समय शस्त्रपालने आकर कहा कि नाथ ! शस्त्रशालामें चक्ररत्न प्रकट हुआ है। जो अपने तेजसे सूर्यके तेजको पराजित कर रहा है । राजा भरत. तीनोंके मुखसे एक साथ शुभ समाचार सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। इन तीन उत्सवोंमें से पहले किसमें शामिल होना चाहिये, यह विचारकर क्षण एकके लिये भरत महाराज व्याकुलचित्त हुये थे अवश्य, पर उन्होंने बहुत जल्दी धर्मकार्यही पहले करना चाहिये . ऐसा दृढ़ निश्चय कर लिया और निश्चयके अनुसार समस्त भाई, बन्धु, मन्त्री, पुरोहित मरुदेवो आदि परिवार के साथ गुरुदेव-पितृदेव के कैवल्य महोत्सवमें शामिल होनेके लिये 'पुरिमतालपुर' पहुंचे। वहां समवसरणकी अद्भुत शोभा देखकर भरतका चित्त बहुत ही प्रसन्न हुआ। देव द्वारपालोंने उन्हें सभाके भीतर पहुंचा दिया। वहां उन्होंने प्रथम पीठिका पर विराजमान धर्म चक्रोंकी प्रदक्षिणा दी फिर द्वितीय पीठिका पर शोभमान ध्वजाओंकी पूजा की, इसके अनन्तर गन्ध-कुटीमें सुवर्ण सिंहासन पर चार अङ्गुल अधर विराजमान महा योगीश्वर भगवान् वृषभदेवको देखकर उनका हृदय भक्तिसे गद्गद् हो गया। भरत वगैरहने तीन प्रदक्षिणाएं दो फिर जमीन पर मस्तक झुकाकर जिनेन्द्र देवको नमस्कार किया। और श्रुति सुग्वद शब्दोंमें अनेक स्तोत्रोंसे स्तुति कर जल चन्दन आदि अष्ट द्रव्योंसे उनकी पूजा की। भक्ति प्रदर्शित करनेके बाद भरत वगैरह मनुष्योंके कोठेमें बैठ गये। उस समय जिनेन्द्र देवकी बैठकके पास अनेक किसलयोंसे शोभाय. मान अशोक वृक्ष था जो अपनी श्यामल रक्त प्रभासे प्राणिमात्रके शोक समूह को नष्ट कर रहा था। वे ऊंचे सिंहासनपर विराजमान थे, उनके शरीर पर तोन छत्र लगे हुये थे जो साफ साफ बतला रहे थे कि भगवान् तीन जगत्के स्वामी हैं । उनके पीछे भामण्डल लगा हुआ था जो अपनी कान्तिसे भास्करसूर्यको भी पराजित कर रहा था, यक्षकुमार जातिके देव चौंसठ चमर ढोल रहे