________________
* चौबीस तीर्थकर पुराण *
-
-
-
-
।
।
dehate
देव ! प्रसन्न होओ, कहिये, कैसा आगमन हुआ ? कोई महा मूल्य रत्न सामने रखकर ग्रहण करने की प्रार्थना करते थे, कोई हाथी घोड़ा आदि सवारियां समपैण कर उन्हें प्रसन्न करना चाहते थे, कोई सर्पाङ्ग सुन्दरी कन्यायें ले जाकर उन्हें स्वीकार करनेका आग्रह करते थे और कोई सोनेकी थालियों में उत्तम उत्तम भोजन ले जाकर ग्रहण करनेकी प्रार्थना करते थे पर वे विधि पूर्वक न मिलनेके कारण विना आहार लिये ही नगरोंसे वापिस चले जाते थे। इस तरह जगह २ घूमते हुये उन्हें एक माह और बीत गया पर कहीं विधि पूर्वक उत्तम पवित्र आहार नहीं मिला। खेदके साथ लिखना पड़ता है कि जिनके गर्भ में आने के छह माह पहले इन्द्र किंकरकी तरह हाथ जोड़कर आज्ञाकी प्रतीक्षा करता रहा, सम्राट भरत जिनका पुत्र था, और जो स्वयं तीनों लोकोंके अधिपति कहलाते थे वे भी ना कुछ आहारके लिये निरन्तर छह माह तक एक-दो नहीं कई नगरोंमें घूमते रहे पर आहार न मिला । कितना विपम है कौका उदय ?
इस तरह भगवान आदिनाथने एक वर्पतक कुछ भी नहीं खाया पिया था तो भी उनके चित्त व शरीरमें किसी प्रकारकी विकृति और शिथिलता नहीं दीख पड़ती थी। अब हम कुछ समयके लिये पाठकोंका चित्त वहां ले जाते हैं जहांपर महामुनिके लिये अकस्मात् आहार प्राप्त होगा।
जिस समयकी यह बात है उस समय कुरुजांगल देशके हस्तिनापुरमें एक सोमप्रभ राजा राज्य करते थे, वे बड़े ही धर्मात्मा थे, उनके छोटे भाईका नाम श्रेयांसकुमार था, यह श्रेयांसकुमार भगवन् आदिनाथके पजजंघ भवमें श्रीमती स्त्रीका जीव था जो क्रम क्रमसे आर्या स्वयंप्रभ देव,केशव,अच्युतप्रतीन्द्र धनदेव आदि होकर सर्वार्थ सिद्धि में अहमिन्द्र हुआ था और वहांसे चयकर श्रेयांसकुमार हुआ था। एक दिन रात्रिके पिछले पहरमें श्रेयांसकुमारने अत्यन्त ऊंचा मेरु पर्वत, शाखाओंमें लटकते हुए भूषणोंसे सुन्दर कल्पवृक्ष, मूंगाके समान लाल लाल अयालसे शोभायमान सिंह, जिसके सींगोंपर मिट्टी लगी हुई है ऐसा बैल, चमकते हुए सूर्य चन्द्रमा, लहराता हुआ समुद्र, और अष्ट मंगल द्रव्योंगो लिये हुए व्यन्तर देव स्वप्नमें देखे । सवेरा होते ही उसने अपने पुरो हितसे ऊपर कहे हुए स्वप्नोंका फल पूछा। पुरोहितने निमित्त ज्ञानसे सोचकर कहा