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________________ * चौवीस तीर्थकर पुराण * यह आश्चर्यकी बात थी कि जो जवानी प्रत्येक मानव हृदय पर विकारकी छाप लगा देती है उस जवानी में भी राजपुत्र वृषभनाथके मनपर विकारके कोई चिन्ह प्रगट नहीं हुये थे। उनकी बालकों जैसी खुली हंसी और निर्विकार चेष्टायें उस समय भी ज्यों की त्यों विद्यमान थीं। ___ एक दिन महाराज नाभिराजने वृषभनाथके बढ़ते हुये यौवनको देखकर उनका विवाह करना चाहा पर ज्यों ही उनकी निर्विकार चेष्टाओं और उदासीनता पर महाराजकी दृष्टि पड़ी त्यों ही वे कुछ हिचक गये। उन्होंने सोचा"कि इनका हृदय अभीसे निर्विकार है विकार शन्य है। जब ये बन्धन मुक्त हांथीकी नाई हठसे तपके लिये बनको चले जावेंगे तब दूसरेकी लड़कीका क्या होगा?" क्षण एक ऐसा विचार करनेके बाद उनके दिलमें आया कि 'संभव है विवाह कर देनेसे ये कुछ संसारसे परिचित हो सकेंगे इसलिए सहसा वनको न भागेंगे और दूसरी बात यह भी है कि यह युगका प्रारम्भ है । इस समयके लोग बहुत भोले हैं,सृष्टिकी व्यवस्था एक चालसे नहींके बराबर है। लोग प्रायः एक दूसरेका अनुकरण करते हैं अतएव इस युगमें विवाहकी रीतिका प्रचलित करना तथा सृष्टिको व्यवस्थित बनाना अत्यन्त आवश्यक है। सम्भव है जब तक इनकी कालसन्धि (तप करनेके योग्य समयकी प्राप्ति ) नहीं आई है तब तक ये विवाह संबन्ध स्वीकार कर भी लेंगे" ऐसा सोचकर किसी समय पिता नाभिराज वृषभनाथके पास गए। वृषभनाथने पिताका उचित सत्कार किया। कुछ समय ठहरकर नाभिराजने कहा-'हे त्रिभुवनपते ! यद्यपि मैं समझता हूँ कि आप स्वयं भू हैं अपने आपही उत्पन्न हुए हैं, मैं आपकी उत्पत्तिमें उस तरह सिर्फ निमित्त मात्र हूँ जिस तरह कि सूर्यको उत्पत्तिमें उदयाचल होता है तथापि निमित्त मात्रकी अपेक्षा मैं आपका पिता हूँ इसलिए मेरी आज्ञाका पालन करना आपका कर्तव्य है। मुझे आशा है कि आप जैसे उत्तम पुत्र गुरु जनोंकी बातोंका उल्लंघन नहीं करेंगे। मैं जो बात कहना चाहता हूँ वह यह है कि इस समय आप लोककी सृष्टि की ओर दृष्टि दीजिए जिसमें आपको लोककी सृष्टिमें प्रवृत्त हुआ देखकर दूसरे लोग भी उसमें प्रवृत्त होवें। इस समय मानव समाजको सृष्टिका क्रम सिग्वलानेके लिए आप ही सर्वोत्तम हैं,
SR No.010703
Book TitleChobisi Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherDulichand Parivar
Publication Year1995
Total Pages435
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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