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* चौबीस तीथक्कर पुराण *
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स्वच्छ हो गया था, सूर्यकी कान्ति फीकी पड़ गई थी, मन्द सुगन्धित पवन बह रहा था। वनमें एक साथ छहों ऋतुओंकी शोभा प्रकट हो गई थी। घर घर उत्सव मनाये जा रहे थे, जगह-जगहपर लय और तालके साथ सुन्दर संगीत हो रहे थे, मृदङ्ग, वीणा आदि वाजोंकी रसीली आवाज सारे गगनमें गूंज रही थी, मकानोंको शिखरोंपर कई रंगकी पताकाएं फहराई गई थीं। सड़कोंपर सुगन्धित जल सींचकर चन्दन छिड़का गया था और उत्तम उत्तम फूल बिखेरे गये थे और आकाशसे तरह तरह के रत्न तथा मन्दार, सुन्दरनमेरु, पारिजात, सन्तान आदि कल्प वृक्षोंसे फूल बरस रहे थे। इन सबसे अयोध्यापुरीकी शोभा बड़ी ही विचित्र मालूम होती थी। उस समय वहां ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं था जिसका हृदय तीर्थंकर बालककी उत्पत्ति सुनकर आनन्दसे न उमड़ रहा हो । देव, दानव, मृग, मानव आदि सभी प्राणियोंके हृदयोंमें आनन्द सागर लहरा रहा था।
बालकके पुण्य प्रतापसे भवनवासी देवोंके भवनोंमें बिना वजाये ही शंख बजने लगे थे। व्यन्तरोंके भवनोंमें भेरीका शब्द होने लगा था। ज्योतिषियों के विमान सिंहनादसे प्रतिध्वनित हो उठे थे और कल्पवासी देवोंके विमानों में घण्टाओंका सुन्दर शब्द होने लगा था। 'जगत्गुरु जिनेन्द्र देवके सामने किसी दूसरेका राज्य सिंहासन सुदृढ़ नहीं रह सकता' मानो यह प्रकट करते हुए ही देवोंके आसन हिल गये थे। जब इन्द्र हजार आंखोंसे भी आसन हिलनेका कारण न जान सका तब उसने अपना अवधि ज्ञान रूपी लोचनखोला जिस से वह शीघ्र ही समझ गया था कि अयोध्यापुरीमें श्री महाराज नाभिराजके घर प्रथम तीर्थङ्करका जन्म हुआ है । यह जानकर इन्द्रने शीघ्रता पूर्वक सिंहासनसे उठ अयोध्यापुरीकी ओर सात कदम जाकर तीर्थकर बालकको परोक्ष नमस्कार किया। फिर भगवान्के जन्माभिषेक महोत्सवमें शामिल होनेके लिये प्रस्थान भेरी बजवाई । भेरीका गम्भीर शब्द, चिरकालसे सोये हुए समीचीन धर्मको जगाते हुएके समान तीनों लोकोंमें फैल गया था प्रस्थान भेरीकी आवाज सुन समस्त देव सेनाएं अपने अपने आवासोंसे निकलकर स्वर्गके गो. पुर द्वारपर इन्द्रकी प्रतीक्षा करने लगीं। सौधर्म स्वर्गका इन्द्र भी इन्द्राणीके