________________
* चौबीस तीथकर पुराण *
देवोंने उस महात्माके स्वागतके लिये नव्य नगरीका निर्माण किया और फिर उसमें प्रति दिन दिनमें तीन तीन बार करोड़ों रत्नोंकी वर्षा की थी ।
३६
एक दिन महारानी मरु देवी गंगा जलके समान स्वच्छ चद्दरसे शोभित शय्या पर शयन कर रही थीं । उस समय सरयू नदीकी तरल तरङ्गोंके आलिइनसे शीतल हुई हवा धीरे धीरे वह रहो थी इसलिये वह सुखकी नींद सो रही थी । जब रात पूर्ण हुआ चाहती थी तब उसने आकाशमें नीचे लिखे सोलह स्वप्न देखें । १ ऐरावत हाथी २ सफेद बैल ३ गरजता हुआ सिंह ४ लक्ष्मी ५ दो मालाएं ६ चन्द्र मण्डल ७ सूर्य विम्ब ८ सुवर्णके दो कलश तालाब में खेलती हुई दो मछलियां १० निर्मल जलसे भरा हुआ सरोवर ११ लहराता हुआ समुद्र १२ रत्नोंसे जड़ा हुआ सिंहासन १३ देवोंका विमान १४ नागेन्द्र भवन १५ रत्नराशि और १६ निर्धूम अग्नि । स्वप्न देखने के बाद उसने अपने मुंह में प्रवेश करते हुए कुन्द पुष्पके समान श्वेत वर्ण वाला एक बैल देखा। इतनेमें रात पूर्ण हो गई, पूर्व दिशामें लाली छा गई और राज मन्दिर में बाजोंकी मङ्गल ध्वनि होने लगी । बाजोंकी आवाज़ तथा बन्दीजनों के स्तुति भरे वचनोंसे उसकी - मरु देवीकी नींद खुल गई । वह पंच परमेष्ठी का स्मरण करतो हुई शय्यासे उठी तो, अनोखे स्वप्नोंका ख्यालकर आश्चर्य सागर में विमग्न हो गई । जब उसे बहुत कुछ सोच विचार करनेपर भी स्वप्न फलका पता न चला तब वह शोध ही नहा धोकर तैयार हुई और बहुमूल्य वस्त्राभूषण पहिनकर सभा मण्डपकी ओर गई। महाराज नाभिराज ने हृदय वल्लभा मरुदेवीका यथोचित सत्कार कर उसे योग्य आसनपर बैठाया और मधुर 'बचनों से कुशल प्रश्न पूछ चुकने के बाद उसने राजसभामें आनेका कारण पूछा । मरुदेवीने विनय पूर्वक रातमें देखे हुए स्वप्न राजासे कहे और उनके फल जानने की इच्छा प्रकट की । नाभिराजको अवधि ज्ञान था इसलिये वे सुनते समय ही स्वप्नोंका फल जान गये थे । जब मरु देवी अपनी जिज्ञासा प्रकटकर चुप हो रही तब राजा नाभिराज बोले । बोलते समय उनके दाँतों की सफेद किरणें मरुदेवीके वक्षस्थल पर पड़ रही थीं जिनसे ऐसा मालूम होता था मानो महाराज अपनी प्रियतमा के लिये मोतियोंका हार ही पहिना रहे हों ।