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• चौबीस तीर्यकर पुराण * .
तथा राजाओंने मिलकर उनका पुनः राज्याभिषेक किया। इस तरह वे देव दुर्लभ भोग भोगते हुये सुखसे समय बिताने लगे।
एक दिन भगवान् कुन्थुनाथ अपने इष्ट परिवारके साथ किसी बनमें गये थे। वहांसे लौटते समय रास्तेमें उन्हें ध्यान करते हुये एक मुनिराज दिखाई पड़े। उन्होंने उसी समय अंगुलीसे इशारा कर अपने मंत्रीसे कहा-'देखो, कितनी शांन मुद्रा है ? जब मन्त्रीने उनसे मुनिव्रत धारण करनेका कारण पूछा तब उन्होंने कहा कि 'मुनिव्रत धारण करनेसे संसारके पढ़ानेबाले समस्त कर्म नष्ट हो जाते हैं तब मोक्ष प्राप्त हो जाता है।'
इन्होंने जितने वर्ष सामान्य राजा रहकर राज्य किया था उतने ही वर्ष सम्राट होकर भी राज किया था । किसी एक दिन कारण पाकर उनका चित्तविषयोंसे उदास हो गया जिससे उन्होंने दीक्षा लेनेका सुदृढ़ संकल्प कर लिया। उसी समय लौकान्तिक देवोंने आकर उनकी स्तुतिकी और उनके विचारोंका समर्थन किया । लौकान्तिक देव अपना कार्य पूरा कर अपने अपने स्थानों पर वापिस चले गये। किन्तु उनके बदले हर्षसे समुद्रकी तरह उमड़ते हुए असंख्यात देव हस्तिनापुर आ पहुंचे । और दीक्षा कल्याणकको विधि करने लगे।
भगवान् कुन्थुनाथ पुत्रको राज्य देकर देव निर्मित विजया नामकी पालकी पर सवार हो सहेतुक बनमें पहुंचे और वहां तीन दिनके उपवासकी प्रतिज्ञा लेकर वैशाख शुक्ला परिवाके दिन कृतिका नक्षत्र में शामके समय वस्त्राभूषण छोड़कर दिगम्बर हो गये । उन्हें दीक्षा समय ही मनः पर्यय ज्ञान प्राप्त हो गया था देव लोग उत्सव समाप्त कर अपने स्थानों पर वापिस चले गये । चौथे दिन आहार लेनेकी इच्छासे उन्होंने-- हस्तिनापुरमें प्रवेश लिया वहां धर्ममित्रने उन्हें आहार देकर अचिन्त्य पुण्यका सञ्चय किया । वे आहार लेकर बनमें लौट आये और कठिन तपस्याएं करने लगे। वे दीक्षा लेनेके बाद मौनसे ही रहते थे। इस तरह कठिन तपश्चर्या करते हुए उन्होंने सोलह वर्ष मौनसे व्यतीत किये। इसके अ..न्तर विहार करते हुए वे उसी सहेतुक बनमें आये और वहां तिलक वृक्षके नीचे तेला-तीन दिनके उपवासकी प्रतिज्ञा लेकर विराजमान हो गये । आत्माकी विशुद्धिके बढ़ जानेसे उन्हें उसी समय-चैत्र शुक्ला तृतीयाके
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