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* चौवीस तीर्थङ्कर पुराण
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तुम समीचीन ज्ञानसे सर्वथा रहित मालूम होते हो। हमारे और तुम्हारे शरीरमें जो अहम् - मैं इस तरहका ज्ञान होता है वही आत्म पदार्थकी सत्ता सिद्ध कर देता है फिर करण इन्द्रियोंमें व्यापार देखकर कर्ता-आत्माका अनुमान भी किया जा सक्ता है। इसलिये आत्म पदार्थ प्रमाण और अनुभवसे सिद्ध है। उसका विरोध नहीं किया जा सक्ता ? तुमने जो भूत चतुष्टयसे जीव की उत्पत्ति होना बतलाया है वह व्यभिचरित है क्योंकि एक ऐसे क्षेत्रमें जहां पर खुलकर हवा बह रही है अग्निके ऊपर रखी हुई जलभृत -पटलोई में किसी भी जीवकी उत्पत्ति नहीं देखी जाती। जिसके रहते हुए ही कार्य हो और उसके अभावमें न हो वही सच्चा सम्यक् हेतु कहलाता है पर यहां तो दूसरी ही बात है। यदि जन्मके पहले मृत्युके पश्चात् जीवात्माकी सिद्धि न 'मानी जावे तो सत्या प्रसूत ( तत्कालमें उत्पन्न हुए ) पालकके दूध पीनेका संस्कार कहांसे आया ? जातिस्मरण और अवधि ज्ञानसे जो मनुष्य अपने कितने ही भव स्पष्ट देख लेते हैं वह क्या है ? रही न दिखनेकी पात, सो वह अमूर्तिक इन्द्रियोंसे उसका अवलोकन नहीं हो सक्ता। क्या कभी अत्यन्त तीक्ष्णतलवारोकी धारसे आकाशका भेदन देखा गया है ? इत्यादि रूपसे मंत्रीके नास्तिक विचारोंको दूर-हटा, उसे जैन तत्वोंका रहस्य सुना और महारथपुनके लिये राज्यादे राजा दशरथ घनमें जाकर विमल वाहन नामके भुनिराजके पास दीक्षित हो गया। वहां उसने खूब तपश्चरण किया तथा सतत अभ्यासके द्वारा ग्यारह अङ्गोंका ज्ञान प्राप्त कर लिया मुनिराज दशरथने विशुद्ध हृदयसे दर्शन विशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओंका चिन्तवन किया जिससे उन्हें तीर्थकर नामक महा पुण्य प्रकृतिका बन्धन हो गया वे आयुके अन्तमें सन्यास पूर्वक शरीर छोड़कर सर्वार्थसिद्धि विमानमें ,अहमिन्द्र हुए। वहां..उनकी.आयु तेतीस सागरकी थी, एक हाथ ऊंचा सफेद रङ्गका शरीर था। वे तेतीस हजार वर्ष बाद मानसिक आहार लेते और तेतीस पक्ष पाद श्वासोच्छ्वास ग्रहण करते थे। उन्हें जन्मसे ही अवधि ज्ञान था जिससे वे सातवें नरक तकके रूपी पदार्थों को स्पष्ट रूपसे जानते देखते थे। वे हमेशा तत्व चर्चाओंमें ही अपना समय विताया करते थे। कषायोंके मन्द होनेसे वहां उनकी प्रवृत्ति
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