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* चौबीस तीथङ्कर पुराण *
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वैराग्य और भी बढ़ गया। निदान सुमति नामक पुत्रके लिये राज्यका भार सौंपकर देव निर्मित 'सूर्यप्रभा' पालकीपर सवार हो पुष्पक यनमें गये। वहां उन्होंने मार्ग शीर्ष शुक्ला प्रतिपदाके दिन शामके समय एक हजार राजाओंके साथ जिन दीक्षा ले ली। उसी समय उन्हें मनः पर्यय ज्ञान प्राप्त हो गया था। देव लोग तपः कल्याणकका उत्सव मनाकर अपने अपने स्थानोंपर वापिस चले गये। जब वे दो दिन वाद आहार लेनेके लिये शैलपुर नामके नगरमें गये तब उन्हें वहांके राजा पुष्पमित्रने विनय पूर्वक पड़गाह कर नवधा भक्तिसे सुन्दर सुस्वादु आहार दिया। पात्र दानसे प्रभावित होकर देवों ने राजा पुष्पमित्रके घरपर पंचाश्चर्य प्रकट किये। भगवान पुष्पदन्त आहार लेकर बनमें लौट आये और वहां पहलेकी तरह फिरसे आत्म ध्यानमें लीन हो गये। वे ध्यान पूर्ण होनेपर कभी प्रतिदिन और कभी दो तीन चार या इससे भी अधिक दिनोंके अन्तरालसे पासके किसी नगरमें आहार लेनेके लिये जाते थे और वहांसे लौटकर पुनः बनमें ध्यानकतान हो जाते थे। इस तरह तपश्चरण करते हुए जब उनकी छद्मस्थ अवस्थाके चार वर्ष व्यतीत हो गये तब वे दो दिनके उपवासकी प्रतिज्ञा लेकर पुष्पक नामक दीक्षा घनमें नाग वृक्षके नीचे ध्यान लगाकर बैठ गये। वहींपर उन्हें कार्तिक शुक्ला द्वितियाके दिन मूलनक्षत्रमें शामके समय घातिया कर्मोका नाश होनेसे केवल ज्ञान आदि अनन्त चतुष्टय प्राप्त हो गये थे।
देवोंने आकर उनके ज्ञान कल्याणकका उत्सव मनाया। इन्द्रकी आज्ञासे राज-कुवेरने सुन्दर और सुविशाल समवसरणकी रचना की। उसके मध्य में स्थित होकर भगवान पुष्पदन्तने अपने दिव्य उपदेशसे समस्त जीवों को सन्तुष्ट किया । फिर इन्द्रकी प्रार्थनासे उन्होंने देश-विदेशमें घूमकर सद्धर्मका प्रचार किया। उनके समवसरणमें विदर्भ आदि अठासी गणधर थे, पन्द्रह सौ श्रुतकेवली द्वादशांगके जानकार थे, एक लाख पचपन हजार पांच सौ शिक्षक थे, आठ हजार चार सौ अधिज्ञानी थे, तेरह हजार विक्रिया ऋद्धिके धारक थे, सात हजार पांच सौ मनः पर्यय ज्ञानी और छह हजार छह सौ बादी थे। इस तरह सब मिलाकर दो लाख मुनिराज थे। घोषाको आदि