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________________ * चौबीस तीर्थकर पुराण * १२५ वे सम्मेद शिखरपर पहुंचे और वहां योग निरोध कर प्रतिमायोगसे विराजमान हो गये। वहींसे उन्होंने शुक्ल ध्यानके अन्तिम भेद सूक्ष्मा किया। प्रति पाती और व्युपरत क्रिया निवर्तीके द्वारा अघातिया चतुष्कका नाशकर फाल्गुन शुक्ला सप्तमीके दिन विशाखा नक्षत्रमें सूर्योदयके समय एक हजार मुनियों के साथ साथ मोक्ष प्राप्त कर लिया। देवोंने आकर उनके निर्वाण क्षेत्रकी पूजा की। भगवान चन्द्रप्रभ सम्पूर्णः किमयं शरच्छशधरः किं वार्पितो दर्पणः सर्वार्थावंगतेः किमेष विलसत्पीयूषपिण्डः पृथुः। किं पुण्याणुमयश्चयोऽय मिति यद्वक्त्राम्बुजं शंक्यतेः ___ सोऽयंचन्द्र जिनस्तमो व्यपहरन्नं हो भयाद्रक्षतात् ॥ आचार्य गुणभद्र "क्या यह शरदऋतुका पूर्ण चन्द्रमा है ? अथवा सब पदार्थों को जाननेके लिये रक्खा हुआ दर्पण है ? क्या यह शोभायमान अमृतका विशालपिण्ड है ? या पुण्य परमाणुओंका बना हुआ पिण्ड है। इस तरह जिनके मुख कमलको देखकर शंका होती है, वे श्रीचन्द्रप्रभ महाराज तम अज्ञानको नष्ट करते हुए पापरूपी भयसे हम सबकी रक्षा करें। पूर्वभव वर्णन असंख्यात द्वीप समुद्रोंसे घिरे हुए मध्य लोकमें एक पुष्कर द्वीप है। उसके बीचमें चूडीके आकारवाला मानुषोत्तर पर्वत पड़ा हुआ है, जिससे उसके दो भेद हो गये हैं। उनमेंसे पूर्वार्ध भागतक ही मनुष्योंका सद्भाव पाया जाता है। पुष्कराध द्वीपमें क्षेत्र वगैरहकी रचना धातकी खण्डकी तरह है अर्थात्
SR No.010703
Book TitleChobisi Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherDulichand Parivar
Publication Year1995
Total Pages435
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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