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________________ २६० * चौवीस तीर्थकर पुराण * - - - - - तब वह अपने शिष्योंको वेद वेदांगोंका पाठ पढ़ारहा था । इन्द्र भी एक शिष्य के रूपमें उसके पास पहुंचा और नमस्कार कर जिज्ञासुभावसे बैठ गया । इन्द्र. भूतिने नये शिष्यकी ओर गम्भीर दृष्टिसे देखकर कहा कि तुम कहांसे आये हो? किसके शिष्य हो? उसके वचन सुनकर शिष्य वेपधारी इन्द्रने कहा कि मैं सर्वज्ञ भगवान महावीरका शिष्य है। इन्द्रभूतिन महावीरके साथ सर्वज्ञ और भगवान विशेषण सुनकर तिड़कते हुए कहा-'ओ सर्वज्ञके शिष्य ! तुम्हारे गुरु यदि सर्वज्ञ हैं तो अभीतक कहां छिपे रहे। क्या मुझसे शास्त्रार्थ किये विनाही वे सर्वज्ञ कहलाने लगे हैं',इन्द्रने कुछ भौंह टेढ़ी करते हुए कहा-तो क्या आप उनसे शास्त्रार्थ करने के लिये समर्थ हैं । इन्द्रभूतिने कहा हां अवश्य । तय इन्द्रने कहा । अच्छा, पहले उनके शिष्य मुझसे ही शास्त्रार्थ कर देखिये-फिर उनसे करियेगा। मैं पूछता हूं ...... त्रैकाल्यं द्रव्यषटकं नव पद सहित......आदि। कहिये महाराज ! इस श्लोकका क्या अर्थ है ? जब इन्द्रभूतिको 'द्रव्यपद्क' 'नवपद सहितं' लेश्या आदि शब्दोंका अर्थ प्रतिभासित नहीं हुआ तब वह कड़क कर घोला-चल तुझसे क्या शास्त्रार्थ करू, तेरे गुरुसे ही शास्रार्थ करूंगा। ऐसा कहकर मय पांच सौ शिष्योंके साथ भगवान महावीरके पास आनेके लिये खड़ा हो गया। इन्द्र भी हंसता हुआ आगे होकर मार्ग बतलाने लगा । ज्यों ही इन्द्रभूति समवसरणके पास आया और उसकी दृष्टि मान स्तम्भपर पड़ी त्यों ही उसका समस्त अभिमान दूर हो गया। वह विनीत भावसे समवसरणके भीतर गया। वहां भगवान्के दिव्य ऐश्वर्यको देखकर उनके सामने उसने अपने आपको बहुत ही हल्का अनुभव किया। जब इन्द्रभूति भगवानको नमस्कारकर मनुष्योंके कोठेमें बैठ गया तब इन्द्रने उससे कहा-अब आप जो पूछना चाहते हों वह पूछिये । जव इन्द्रभूतिने भगवान्से जीवका स्वरूप पूछा तब उन्होंने सप्तभङ्गों में जीव तत्वका विशद व्याख्यान किया। उनके दिव्य उपदेशसे गद्गद् हृदय होकर इन्द्रभूतिने कहा-'भगवन् ! इस दासको भी अपने चरणों में स्थान दीजिये। ऐसा कहकर उसने वहींपर जिन दीक्षा धारण कर ली। उसके पांच सौ शिष्योंने भी जैनधर्म
SR No.010703
Book TitleChobisi Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherDulichand Parivar
Publication Year1995
Total Pages435
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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